जर, जमीन
एवं जोरू का मोह शान्त होना कठिन है। इन तीनों वस्तुओं का मोह छूट जाए तो-तो तीर्थ
की स्थापना हो जाती है। इनकी ममता न हो तो मार-काट भी न हो, इन्हीं
का सब वैर-विरोध है। इनके फंदे में फंसने पर निकलना कठिन है। लेकिन, जो
इनके फंदे से निकल जाता है, वह तिर जाता है। हमारी भावना पीडा
देने की नहीं है। हमारी भावना तो सबको संसार से निकालने की है। या तो पूरी तरह
निकलो या आधे रूप में निकलो। आधे रूप में भी निकलो तो इस भावना से निकलो कि हमें
पूरी तरह निकलना है। तूफान उठेगा, पर घबराना नहीं है। हमारी भावना
एवं ध्येय सच्चा है। हमारे नायक तो देवाधिदेव हैं। उन देवाधिदेव की आज्ञा का आधार
है। हमारी भावना आपको संसार से निकालकर मुक्ति नगरी की ओर भेजने की है। इच्छा और
भावना उत्तम है तो फिर शोरगुल से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि
परिणाम तो उत्तम ही होगा। जिस वस्तु का परिणाम उत्तम हो, वह
वस्तु यदि कडवी भी हो तो भी घोलकर पी लेनी चाहिए। उकाला यदि रक्त-शोधक है तो कडवा
होने पर भी पी लेना चाहिए।
कडवा
होने के कारण सिर के बाल उखड जाएं पर ज्वर अवश्य उतर जाएगा। आपके भी सिर के बाल
उखड जाएं तो संसार के प्रति राग तो घट जाएगा न? जब
आग लगी हो तो जल के पम्प प्रारम्भ करने ही पडते हैं, तब
आग बुझेगी। सामने वाले को आग से भी बचाना है और आग की कालिमा भी न लगे, यह
भी ध्यान रखना है। हम में भी यदि कालिमा आ गई तो हमारे डूबने के लिए भी खड्डे
तैयार हैं, यह निश्चित बात है, इसमें
तनिक भी शंका नहीं है। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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