शनिवार, 7 सितंबर 2013

मूल में भूल आखिर कब तक?


आप दिन भर जो मेहनत-मजदूरी करते हैं, उसका कोई टाइम-टेबल बनाते हैं क्या? आप स्वयं-स्फूर्त सोना, उठना, खाना, पीना, शोच आदि नित्यकर्म करते हैं, क्योंकि यह सब आपके वर्तमान शरीर की जरूरतें हैं और आत्मा की जरूरत के लिए? जन्म से लेकर पूरे बचपन और तरुणावस्था तक माता का मुँह ताकते रहना, जवानी में पत्नी का मुँह ताकते रहना और बुढापे में लडकों का मुँह ताकते रहना ही है तो फिर आत्मा की तरफ अपनी दृष्टि कब गुमाओगे? बाल्यकाल नासमझी और मूर्खताभरी क्रीडाओं में बीत जाए, यौवन विषयों की परवशता में बीत जाए और वृद्धत्व कच-कच में पूरा हो जाए तो आत्मा का साधन किस काल में होगा?

यहां मरे इसका अर्थ सब कुछ समाप्त होना नहीं है और यहां के नाते-रिश्तेदार या धन-दौलत, साधन-सुविधाएं भी साथ आने वाले नहीं हैं। मरने के बाद आत्मा अन्य स्थान में जाता है, स्थान-परिवर्तन होता है, परन्तु कर्म तो बने रहते हैं। कर्म साथ रहते हैं, तो दुःख बना रहता है। अतः प्रयत्न यह करना चाहिए कि आत्मा कर्म-रहित बने। यह ध्येय निश्चित कर लो। इसके बाद छोटी-सी भी धर्मक्रिया आपको सच्चे सुख की सच्ची दिशा में आगे बढने में सहायक बनेगी।

आज की दुनिया की एक मात्र इच्छा यही है कि सुख मिले और दुःख टले। प्राणी मात्र की प्रवृत्ति भी सुख पाने की और दुःख टालने की है। तथापि यह सत्य है कि दुनिया दुःखी है। ऐसा क्यों? कहना होगा कि मूल में भूल है। सुख-दुःख की सच्ची समझ ही नहीं है। सच्चे सुख की समझ आ जाए और इसे पाने का ध्येय निश्चित हो जाए तो सुख मिले बिना न रहे और दुःख टले बिना न रहे। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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