शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

धर्म को सर्वांग रूप से अपनाएं !


धर्म का सही मूल्यांकन करना सीखें। यदि सही मूल्यांकन करते रहेंगे तो दृष्टि सम्यक रहेगी, नीर-क्षीर विभाजन-विवेक कायम रहेगा, धर्म-पथ पर अपना संतुलन बनाए रख सकेंगे। अन्यथा धर्म का कोई एक अंग आवश्यकता से अधिक महत्व पाकर धर्म-शरीर की सर्वांगीण उन्नति में बाधक बन जाएगा। सम्यक दृष्टि यही है कि जिसका जितना मूल्य है, उसको उतना ही महत्व दें। न अधिक, न कम। कंकड-पत्थर, काँच, हीरा, मोती, नीलम, मणि सबका अपना-अपना महत्व है। मिट्टी, लोहा, ताँबा, पीतल, चाँदी, सोना, सबका अलग-अलग मूल्य है। जिसका जितना महत्व है, उसका उतना ही मूल्य है।

मसलन, दान देना अच्छा है। धर्म का एक अंग है। दान अधिक है या कम इसका कोई महत्व नहीं होता। परंतु देते समय चित्त की चेतना कैसी है, भावना कैसी है, यही ध्यान देने की बात है। यदि उस समय चित्त में क्रोध या चिडचिडाहट या घृणा या द्वेष या भय या आतंक या बदले में कुछ प्राप्त करने की तीव्र लालसा है या यश की प्रबल कामना है अथवा प्रतिस्पर्धा का उत्कट भाव है, तो ऐसा दान शुद्ध, निष्काम, निरहंकार चित्त से दिए गए दान की अपेक्षा बहुत हल्का है। भले ही मात्रा में अधिक क्यों न हो। शुद्ध चित्त से दिए गए दान का अधिक महत्व है। इससे अपरिग्रह और त्याग धर्म पुष्ट होता है।

इसी प्रकार उपवास भी धर्म का एक अंग है। मानसिक संयम के लिए उपवास उपयोगी है। उपवास करें और मन भिन्न-भिन्न पकवानों में रमता रहे तो ऐसा उपवास हीन कोटि का होगा। उपवास करें और केवल शरीर को ही नहीं, बल्कि मन को भी संयमित करें तो उपवास उच्च कोटि का होगा। उपवास करने वाला शील-सदाचार के क्षेत्र में दुर्बल हो तो उपवास करने वाले शीलवान व्यक्ति से हीन है। इसी प्रकार सामिष भोजन से निरामिष भोजन, चटपटे मिर्च-मसाले वाले राजसी भोजन से सादा सात्विक भोजन करने वाला व्यक्ति श्रेष्ठ है, उत्तम है। अपना अधिकांश समय आलस्य, प्रमाद, तंद्रा में गँवाने वाले व्यक्ति की अपेक्षा यथावश्यक कम से कम समय सोकर, अधिक से अधिक समय जागरूक रहने वाला व्यक्ति निश्चित रूप से अधिक अच्छा है। इसी प्रकार भजन-कीर्तन तल्लीनता के लिए है। चित्त को एकाग्र करने के साधन हैं। किसी गुरु या संत का दर्शन, उनको किया गया नमन, उनके प्रति श्रद्धा जगाने के लिए है। उनके गुणों को देखकर मन में प्रेरणा जगाएँ और वे गुण स्वयं धारण करें, इसी निमित्त हैं। किसी धर्मग्रंथ का पाठ करते हैं, अथवा श्रवण करते हैं तो इसलिए कि उससे हमें प्रेरणा मिले, मार्गदर्शन मिले, जिससे कि धर्म जीवन में उतार सकें। कोरा वाणी-विलास और बुद्धि-विलास धर्म नहीं है। जीवन में उतरा हुआ शील-सदाचार ही धर्म है। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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