जीव धर्म-प्राप्ति के योग्य बने वहां तक शुद्ध यथाप्रवृत्तिकरण गिना जाता है।
धर्म प्राप्त करने की इच्छा हुई, तब तक तो उसने बहुत-बहुत निर्जरा कर ली
होती है। परन्तु धर्म पाने के लिए सबसे पहले ग्रंथिभेद करना पडता है। गाढ
राग-द्वेष की ग्रंथि को भेदना पडता है। अपूर्वकरण के बिना ग्रंथिभेद नहीं होता। इस
अपूर्वकरण को पैदा करने के लिए जीव को सांसारिक सुख के राग पर और इस राग से
उत्पन्न दुःख पर खूब द्वेष करना पडता है। संसार-सुख के राग पर और इस राग से उत्पन्न
दुःख पर कैसा द्वेष करना पडता है?
अब तक यह जीव संसार के सुख के राग पर और संसार के दुःख के द्वेष पर आधारित रहा
है। ‘इस राग में और इस द्वेष में ही मेरा कल्याण है’, ऐसा इस जीव ने माना
हुआ है। परन्तु अब उसे समझ में आता है कि ‘यह राग और यह द्वेष ही सचमुच
मेरे दुश्मन हैं। इस राग और द्वेष ने ही मुझे अपने स्वरूप का भान नहीं होने दिया।
अनादिकाल से अब तक के अनंतानंत पुद्गल परावर्तकाल तक मुझे इस राग और द्वेष ने ही
संसार में भटकाया है। इस राग और द्वेष से मैं छूटूं, तो ही मेरी मुक्ति है।
अतः अब किसी भी तरह से मुझे न यह राग चाहिए और न द्वेष ही चाहिए। इस भयंकर
संसार से छूटने का उपाय यही है कि ‘इस राग से और द्वेष से मैं
सर्वथा मुक्त बनूं’,
ऐसा निर्णय किया जाए। यह निर्णय क्या है? संसार
के सुख के राग पर और उससे उत्पन्न द्वेष पर द्वेष करना है। इस राग और द्वेष पर इस
प्रकार के द्वेष के चितनादि में से आत्मा में इस राग-द्वेष को तोड डालने का अपूर्व
परिणाम प्रकट होता है,
इसे अपूर्वकरण कहते हैं। इस अपूर्वकरण से गाढ राग-द्वेष की
गांठ भी छिन्न-भिन्न हुए बिना नहीं रहती। आपको ऐसा अनुभव होता है न कि संसार के
सुख के प्रति राग ने और इस राग से उत्पन्न दुःख के प्रति द्वेष ने आत्मा का
बहुत-बहुत नुकसान किया है?
ये राग-द्वेष बुरे लगें तो अपूर्वकरण सरलता से प्रकट हो
सकता है।
इस अपूर्वकरण को महात्माओं ने मुद्गर जैसा भी कहा है। सम्यक्त्व के द्वार में
प्रवेश करने के लिए पाप-पडल दूर होने चाहिए और पाप के पडल दूर हों तब यह जीव
अपूर्वकरणरूपी मुद्गर को हाथ में ले सकता है न? इसके बाद ही ग्रंथि का भेद
होता है। अनंतानुबंधी कषाय की अर्गला और मिथ्यात्व की सांकल इसके बाद भिन्न हो
जाते हैं। तब भगवान का दर्शन, पूजन आदि इसके लिए करना है। यह सम्यक्त्व
की क्रिया है। यह क्रिया सम्यक्त्व दिलाने वाली है और इस क्रिया में यह गुण है कि
यह सम्यक्त्व को निर्मल भी बनाती है। जीव में यह भाव होना चाहिए। अथवा उसमें इस
भाव से विपरीत भाव का आलम्बन नहीं होना चाहिए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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