‘इस
जीवन में कदाचित् हमें अन्य कुछ न मिले, परन्तु सम्यक्त्व तो हमें
अवश्य प्राप्त करना चाहिए।’
क्योंकि, सम्यक्त्व उन सब साधनों का मूल है, जो
आत्मकल्याण के लिए आवश्यक हैं। सम्यक्त्व के बिना आत्मा का सच्चा कल्याण नहीं हो
सकता। और सम्यक्त्व के आने पर आत्मा का सच्चा और पूरा कल्याण हुए बिना भी नहीं
रहता, ऐसा निश्चय हो जाता है।
विचार करिए कि जीव को जब तक संसार अच्छा लगता है, संसार
के सुख में ही सच्चा सुख मालूम होता है, वहां तक वह सम्यक्त्व पा सकता
है? नहीं। अतः किसी भी तरह संसार खराब लगे, हानिकर्ता लगे, छोडने
योग्य लगे, ऐसा करना चाहिए न?
तो अब चाहे जैसे भी ऐसा जानना है, चिंतन
करना है, ऐसी संगति में रहना है,
ऐसे की सेवा करना है कि जिससे संसार छोडने योग्य ही है, ऐसी
प्रतीति हो।
कोई पूछे कि ‘मंदिर में प्रतिदिन क्यों जाते हो?’ तो कहना चाहिए कि ‘सम्यक्त्व
पाने के लिए।’
‘पूजा में इतने घंटे क्यों लगाते हो?’ तो
कहना चाहिए कि ‘सम्यक्त्व पाना है,
इसलिए।’ ‘साधु के पास बार-बार क्यों जाते हो?’ तो
कहना चाहिए कि ‘सम्यक्त्व पाने के लिए।’ आप जो कोई भी धर्मक्रिया करें, उस
विषय में कोई पूछे कि यह क्यों करते हो, तो कहना चाहिए कि ‘यह
सब मैं इसलिए करता हूं कि मुझे सबसे पहले सम्यक्त्व प्राप्त करना है।’ ऐसा
आप अपने मन में निश्चित कर लें और जब-जब जो कोई पूछे तो उसे ऐसा ही उत्तर देना
शुरु करें, तो कदाचित संसार के रसिया कहेंगे कि ‘यह पागल हो गया है।’ परन्तु
ऐसे लोग जब आपको ‘पागल’ कहें, तब आपको प्रसन्न होना चाहिए। जब लोग ‘पागल’ कहने
लगें, तब समझना चाहिए कि धर्म आने लगा है।
‘संसार
में रहना पडे या संसार के काम करने पडें तो भी उन्हें रस से नहीं करना और संसार को
बढाने वाले कामों में यथासंभव भाग नहीं लेना। आप संसार के कामों में रस नहीं
बताएंगे और यथासंभव आप संसार के काम में भाग नहीं लेंगे, तो आपके
स्नेही-सम्बंधी आपको ‘पागल’ कहेंगे। परन्तु,
जब वे आपको ‘पागल’ कहें, तब
आप समझना कि अब मुझ में धर्म आने लगा है।’ सम्यक्त्व के सन्मुख होने की
अवस्था आने पर संसार का राग मंद पड जाता है, ग्रंथिभेद होने और सम्यक्त्व
प्रकट होने से जीव का विराग बढता है और ‘संसार का राग एवं संग त्याज्य
है’, ऐसी प्रतीति होने लगती है। इसके बाद अविरति मंद पडती है और वैराग्य जोरदार
बनता है। अतः चारित्र मोहनीय टूटने लगता है, विरति आने लगती है। उससे
संसार का राग चला जाता है,
संसार का संग भी छूट जाता है। इस तरह विरति की प्राप्ति
होती है। फलस्वरूप वीतरागता, केवलज्ञान और मुक्ति मिलती है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें