आत्मा को अनादिकालीन जड कर्मों के योग से सर्वथा रहित बनाने के लिए सर्वप्रथम
भव्यत्व स्वभाव की आवश्यकता रहती है। तत्पश्चात क्रमश: भवितव्यता, काल,
कर्म और पुरुषार्थ की अपेक्षा रहती है। यदि भव्यत्व स्वभाव न हो, तो
भवितव्यता के वश से जीव व्यवहार-राशि में आए तो भी वह कभी काल की अनुकूलता नहीं पा
सकता और जीव का भव्यत्व स्वभाव होने पर भी यदि भवितव्यता की अनुकूलता न मिले तो
जीव व्यवहार राशि में भी नहीं आ सकता है, तो फिर काल की अनुकूलता तो
मिल ही कैसे सकती है?
जीव का भव्यत्व स्वभाव हो और भवितव्यता को अनुकूल बनाकर जीव को व्यवहार राशि
में लाकर रख दिया हो,
तो उस जीव को किसी समय काल आदि की अनुकूलता मिलेगी ही, यह
बात निश्चित है। परन्तु जब तक काल की अनुकूलता प्राप्त न हो, वहां
तक कर्मों की अमुक अनुकूलता प्राप्त होने पर भी, वह उस समय तो निरर्थक
ही है। कर्म की यह अनुकूलता, किसी भी तरह इस जीव को अपने अनादिकालीन जड
कर्मों के योग को सर्वथा दूर करने की इच्छा तक उत्पन्न करने में समर्थ नहीं होती।
जीव जब चरमावर्त को प्राप्त कर लेता है, इसके बाद ही कर्मसम्बंधी
अनुकूलता, भवितव्यतादि अनुकूल हो तो ही जीव के लिए कार्यसाधक होती है। इसीलिए, पहले
चरमावर्त की बात की है। चरमावर्त में भी कर्मों की चरम उत्कृष्ट स्थिति का क्षय
होने के बाद ही शुद्ध धर्मरूप सम्यक्त्व, जो सब इष्ट को पूर्ण करने में
कल्पवृक्ष के समान है,
उसके बीज की प्राप्ति होती है।
चरमावर्तकाल मात्र भव्य आत्माओं को ही प्राप्त हो सकता है। जबकि कर्मों की चरम
उत्कृष्ट स्थिति का क्षय केवल भव्यात्माओं को ही हो, ऐसा नियम नहीं है।
कर्मों की चरम उत्कृष्ट स्थिति का क्षय तो अभव्यों को भी हो सकता है, दुर्भव्यों
को भी हो सकता है और भव्यों को भी हो सकता है। साथ ही चरमावर्त काल को प्राप्त कर
लेने के पश्चात जीव अचरमावर्तकाल को कभी प्राप्त नहीं करता। जबकि कर्मों की चरम
उत्कृष्ट स्थिति का क्षय होने के बाद भी जीव के कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति का बंध
तो बार-बार अर्थात् अनंत बार भी हो सकता है। मोहनीय कर्म सत्तर कोटाकोटी सागरोपम
की स्थिति वाला भी बंध सकता है और अंतमुहूर्त वाला भी बंध सकता है, यह
सब समझकर ऐसी सावधानी रखनी चाहिए कि अशुभ परिणाम आएं ही नहीं। यदि अशुभ परिणाम आएं
तो भी वे तीव्र न बनें। शुभ तथा शुद्ध परिणाम बने रहें, ऐसी
सावधानी रखनी चाहिए। साथ ही शुभ तथा शुद्ध-परिणामों को बहुत-बहुत तीव्र बनाने का
प्रयत्न करना चाहिए। आत्मा जैसे-जैसे गुणसम्पन्न बनता जाता है, वैसे-वैसे
उसे शुभ कर्मों का बंध बढता जाता है और अशुभ कर्मों का बंध घटता जाता है; उसकी
निर्जरा का प्रमाण भी बढता जाता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें