मन की तृष्णा ने आज कितना भयानक आतंक फैलाया है? पिता-पुत्र, पति-पत्नी, बडा
भाई, छोटा भाई,
सास-बहू इन सब लोगों के बीच का व्यवहार देखो। जरा सोचो तो
सही एक दूसरे के लिए कितनी ईर्ष्या, द्वेष-भावना दिल में भरी हुई
है? मन की तृष्णा बढी है। पर-वस्तुओं को प्राप्त करने की व भोगने की लालसा बढी है
और त्याग-भावना नष्टप्रायः हो गई है। इसके परिणामस्वरूप आज के संसार में भयानक
भगदड और भागदौड मच रही है। लोग भौतिकता की चकाचौंध में अंधे हो गए हैं। जब तक मन
की भयानक भूख नहीं मिटेगी और त्याग की भावना पैदा नहीं होगी, तब
तक ऐसी भगदड और भागदौड मची रहेगी, इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है। इस तरह
विचार किया जाए तो अवश्य समझ में आएगा कि मन की भौतिक भूख ही सारे विनाश का कारण
है। संसार के प्रति अरुचि न हो तो, धर्म किस काम का? अधिक
प्राप्त करने के लिए धर्म किया जाता हो तो वह धर्म, धर्म रहता ही नहीं, धंधा
हो जाता है, बिना पैसे के धंधे जैसा। आज आपको साधुओं की आवश्यकता क्यों है? बहराने
के लिए? इनके पगल्ये हों तो घर में लक्ष्मी के पगल्ये हो जाएं इसलिए? या
धर्म करने हेतु शास्त्र की विधि का ज्ञान आवश्यक है इसलिए?
पूर्व के कई जन्मों के असीम पुण्योदय से यह मानव जीवन मिला, आर्य
संस्कृति और जैनकुल मिला,
धर्म गुरुओं का सान्निध्य और धर्म श्रवण का लाभ मिला, वैभव
मिला। पूर्व संचित पुण्य से जो कुछ मिला उसे भोग कर नष्ट कर रहे हो और पुराना
पुण्य का खाता बन्द कर रहे हो और भौतिक संसारी सुख में बेभान होकर नया पाप का खाता
चालू कर रहे हो तो आगे क्या बनोगे- कीडे मकोडे, सांप-बिच्छू? अरे
कुछ तो समझो!
जंगली
जमाना
देश बरबाद हो रहा है। मनुष्य, मनुष्य नहीं रहा। मनुष्य के अतिरिक्त अन्य
जीवों को तो मानो जीने का अधिकार ही नहीं, ऐसी हवा फैलगई है। वर्तमान
युग, हिंसक युग है। जिस युग को आप अच्छा मानते हैं, वह घोर घातकी युग है।
लाखों जीव काटे जाते हैं;
वह भी कानून का ठप्पा लगाकर। आप इस हिंसा को रोक भी नहीं
सकते। यदि रोकने का प्रयत्न करो तो ‘देशप्रेमी’ न
गिनाओ। आज मनुष्य,
मनुष्य से घबराकर चलता है। जानवर से तो थोडी दूरी पर रहे तो
निर्भय, परन्तु मनुष्य तो पीछे पडजाता है। अतः उससे डरकर रहना पडता है। ऐसा यह युग है।
कैसा विचित्र है यह युग!! इतनी अधिक अधोगति हो रही है, तथापि
‘प्रगति हो रही है’
ऐसा बोलने वालों को लज्जा तक नहीं आती। यह अचरज की बात नहीं
है? ऐसा जंगली जमाना तो कभी नहीं रहा होगा।
आजकल एकता की बातों के नाम पर ही एकता के टुकडे हो रहे हैं। धर्म के नाम पर
जाति के नाम पर राजनीति हो रही है। भूतकाल में जो एकता थी, वह
आज देखने को नहीं मिलती। अमेरिका का अनाज यहां आता है, परन्तु
यहां के एक प्रांत का अनाज दूसरे प्रांत के काम नहीं आता। विदेशी भी अनाज देकर कोई
उपकार नहीं करते! वे अपना कचरा यहां सरका देते हैं और यहां की अच्छी चीज वहां जाती
है। कैसी विरोधाभासी और विनाशक नीतियां है और कहते हैं कि प्रगति हो रही है। यह
कितने शर्म की बात है! आज देश का उद्धार नहीं, अधःपतन हो रहा है। शक्ति बढने
के साथ आपके घरों में मौज-शौक के साधन तो बढते ही जाते हैं, परन्तु
धर्म के साधन बढते हुए कहीं नजर नहीं आते हैं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
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