यह सत्य है कि जो जन्मे हैं उनका मरण निश्चित है। इच्छा या अनिच्छा से, मरे
बिना चलता नहीं है। किन्तु,
यह विचार करो कि मरता कौन है? आत्मा मरती नहीं है।
आत्मा तो है और रहने वाली है। यहां से मरण के बाद सारा खेल समाप्त हो जाता होता तो
ज्ञानियों ने धर्म का उपदेश न दिया होता। किन्तु, यहां से मरने के बाद
खेल समाप्त नहीं होता है। यहां से मर कर जो आत्माएं मोक्ष में नहीं जाती है, उन
समस्त आत्माओं के लिए यह नियम है कि यह शरीर छूटा और कृतकर्मानुसार निश्चित समय
में नूतन शरीर का संबंध बन जाता है। मनुष्य मरता है, उसके साथ उसके
पुण्य-पाप नहीं मरते हैं।
आप जानते हैं कि यह शरीर यहां रहेगा, किन्तु कार्मन और तेजस शरीर
साथ में जाता है। मनुष्य यहां से मरता है, इसलिए पुण्य-पाप के योग से
दूसरे स्थान पर निश्चित समय पर वह आत्मा नवीन शरीर धारण करता है। इससे यह स्पष्ट
है कि पुण्य-पाप यह सभी आत्मा के साथ ही जाते हैं। इसीलिए बांधे हुए कर्म शान्ति
पूर्वक भोगने के सिवाय या तप आदि से उन्हें खपाए बिना सुख के अर्थी को छुटकारा
नहीं है। कर्म का संबंध छूटे नहीं, वहां तक मरण के पीछे जन्म
निश्चित है। कर्म से छूटना और कर्म छूटने के योग से दुःख और जन्म से मुक्त होना ही
सच्चे सुख का मार्ग है।
श्री जैन दर्शन अर्थात् कर्म का संबंध छोडने का मार्ग दिखाने वाला दर्शन। इस
संसार चक्र से छुडाने वाला दर्शन वह जैन दर्शन। संसार के संबंधों को दृढ करे, वह
सच्चा धर्म नहीं है। सच्चा धर्म तो वही है कि जिसने संसार के संबंध को नाम-शेष
करने का मार्ग दिखाया हो। श्री जैन दर्शन की विवेकपूर्वक विचारणा करो। संसार के
संबंध को तोडने की जिनकी इच्छा उत्पन्न नहीं होती हो, वह
जैन नहीं। संसार के संबंध को छोडने का उपदेश नहीं दे, वह
सच्चा उपदेशक नहीं और संसार के संबंध दृढ बनें, ऐसा उपदेश दे, वह
जैन साधु नहीं,
अपितु सिर्फ वेशधारी है। ये भगवान के शासन के नाम पर पेट
भरने वाले और तिरने के नाम पर स्वयं डूबने वाले और दूसरों को डुबाने वाले हैं।
श्री जैन दर्शन का साधु जो उपदेश देता है, वह संसार के संबंध को तोडने
का उपदेश देता है। कारण कि इसके बिना कल्याण नहीं है। ऐसा अनंतज्ञानियों ने जोर
देकर कहा है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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