धर्म को पाने की अनुकूलता जैन-कुल में बहुत है, परन्तु यह तभी संभव है, जब
जैनकुल में जैनत्व के आचार-विचार चालू हों। यहां आया और साधु बना कि स्वाध्याय आदि
चालू हो जाते हैं,
सद्गुरु का योग भी मिल जाता है। इसलिए जीव इस गुण को जल्दी
पा सकता है। जैनकुल में आया हुआ जीव सद्गुरु के योग को जल्दी पा सकता है, परन्तु
जैनकुल को पाए हुए व्यक्ति सद्गुरु के पास आते ही न हों तो? बात
यह है कि सर्वविरति का परिणाम हो या न हो, देशविरति का परिणाम हो या न
हो, सम्यक्त्व का परिणाम हो या न हो, तो भी उसे पाने के लिए भी सर्वविरति, देशविरति
और सम्यक्त्व की क्रिया अभ्यास रूप में हो सकती है। परन्तु, जो
कोई यह क्रिया करता है,
वह क्रिया सर्वविरति, देशविरति और सम्यक्त्व के
परिणाम को पाने के लिए,
जो पाए हुए हों वे उसे निर्मल बनाने के लिए करते हैं या
नहीं, यह देखना ही चाहिए।
हमें स्वयं ही अपनी धर्मक्रिया के ध्येय को जांचना चाहिए। इसके लिए सबसे पहले
हमें स्वयं को ही पूछना और जांचना चाहिए कि लोक में सुखमय समझे जाने वाले संसार के
प्रति हमारी दृष्टि कैसी है? ‘हे जीव! तू प्रतिदिन पूजा करता है, दान-शील-तप
आदि करता है,
तो तुझे सचमुच क्या रुचिकर लगता है?’ जो
वस्तु सचमुच रुचिकर लगती है, उसे प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करने की
इच्छा होती है?
चाहे जितनी धर्म-क्रियाएं की जाए, परन्तु
जिस दिन संसार सुखमय हो तो अच्छा लगे, उसमें जीव की भलाई लगे, उस
दिन जीव का सब झुकाव उस तरफ हो जाता है। यदि सुखमय संसार भी खराब लगे, छोडने
जैसा लगे तो जीव का झुकाव उसे छोडने की तरफ हो जाता है। जिसे सुखमय संसार में भी
सचमुच रुचिकर जैसा कुछ न लगे, उसका ध्येय सुधर जाता है और ध्येय सुधरने
से परिणाम सुधरे बिना नहीं रहते। परन्तु संसार के सुख पर ही यदि नजर हो, तो
सुख न मिले और दुःख आए तो भी दुःख होता है, परन्तु ध्येय नहीं सुधरता है।
जो कोई उसे संसार का सुख पाने में सहायक प्रतीत होता हो, उस
बात का अनुमोदन करने वाला जो कोई मिले, वह उसे अच्छा लगता है और उसी
के पीछे वह चल पडता है। सुख मिले या न मिले, परन्तु उसकी आशा-तृष्णा में
वह दुःख भी सहन करता रहता है।
संसार-सुख की आशा में रमण करता हुआ जीव धर्मक्रिया करे, यह
संभव है; यदि उसे मालूम हो जाए कि ‘इससे मुझे जो सुख चाहिए, मिलेगा’ तो
वह भी करता है। इस लोक में नहीं, परन्तु परलोक में सुख मिलेगा, ऐसा
लगे तो यह जीव इस लोक में बहुत-बहुत कष्ट उठाकर भी धर्मक्रिया करता है, परन्तु
उसके मन में क्या होता है?
उसकी दृष्टि किधर होती है? संसार के सुख पर ही न? तो
फिर उसकी बहुत-सी धर्मक्रियाएं भी उसके परिणाम को सुधारने वाली कैसे बन सकती है? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें