व्यक्ति को दुनिया में चाहे जितना मिल जाए, तो भी ‘इतने
में क्या होता है’,
ऐसा ही मानता है और अधिक से अधिक पाने की योजना बनाता रहता
है, मेहनत करता रहता है और अवसर की तलाश करता रहता है। यह असंतोष है या और कुछ? यह
असंतोष तो ऐसा है कि जब सीजन का समय है, तो चालू धर्म को भी छोडने में
देर नहीं करता। सीजन आने पर साधु को कह देते हैं कि ‘अब
नहीं आ पाएंगे!’
धर्म का सुन्दर में सुन्दर अवसर मिला हो, अच्छे
साधु का योग मिला हो,
तो भी सबकुछ छोडकर धन के लिए दौड पडते हैं। इतने में यदि
कोई सहारा देने वाला मिल जाए, कमाई कराने वाला मिल जाए तो उसके पीछे
भागने में देर नहीं करते! वह घर छोडने का कहे तो घर छोडने के लिए और गांव छोडने का
कहे तो गांव छोडने के लिए भी तैयार हो जाते हैं। वह कहे कि कलकत्ता जाना है, तो
उसमें भी तैयार और विदेश ले जाने वाला मिले तो विदेश जाने को भी तैयार! वे कहते
हैं कि ‘धर्म तो कभी भी कर लेंगे, पिछली अवस्था में कर लेंगे, दूसरे
भव में कर लेंगे,
परन्तु धन प्राप्ति का ऐसा अवसर बार-बार नहीं मिलता है, अतः
जाते हैं!
फिर तो उसका पता भी नहीं लगता। ऐसे जंजाल और ऐसे प्रपंचों में वह फंस जाता है
कि साधुओं के पास नहीं आ सकता। ऐसा क्यों होता है? कहिए कि वहां धन आदि
के विषय में असंतोष बना हुआ है। ऐसा असंतोष जिनको धर्म के विषय में हो,
जितनी चाहत धन के लिए है, उतनी चाहत धर्म के लिए हो, ऐसे
जीव आज ढूंढने पर भी नहीं मिलते। क्योंकि, जगत में अधिकांश जीव ऐसे हैं, जिनका
सुखमय संसार के प्रति दिल में और दृष्टि में लगाव है।
आप उपाश्रय में कुछ शांति से बैठे हैं, इसके पीछे भी प्रायः कारण यह
है कि घर और दुकान ठीक-ठीक जम गए हैं! नहीं तो? उधर ठीक-ठाक हो तो इधर शांति
है न? अर्थात् चाह किसकी है?
वहां जरा-सी भी गडबडी मालूम हो तो आप कहां होंगे? यहां
या वहां? यहां सब ठीक-ठाक हो तो भी आपको यहां अधिक बैठने की इच्छा होती है? वहां
पर पहुंचने की बात है न?
जो लोग नौकरी करते हैं, उनकी बात अलग है। वे पराधीन
हैं। वह यदि ऐसा भी कहे कि आज नहीं आ सकूंगा, अभी नहीं आ सकूंगा, जल्दी
जाना पडेगा, तो उसकी स्थिति उसे ऐसा करने के लिए विवश करती है, ऐसा
मानना पडेगा। परन्तु यहां जो ठीक-ठीक स्थिति वाले हैं, वे
तो ऐसा कैसे कह सकते हैं?
परन्तु, हम समझते हैं कि ये बेचारे यहां इतने समय
भी शांति से बैठे हैं,
क्योंकि वहां सब ठीक-ठीक है इसलिए! मतलब यह है कि आप जो
धर्म करते हैं,
उसमें भी चाह तो संसार के सुख की है, ऐसा
मालूम पडता है! धर्म की रुचिवाले जीव के हृदय में, चाहे जिस प्रसंग से भी
चाह धर्म की होती है या धनादि की होती है? सोचिए जरा! -आचार्य श्री
विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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