सच्चा साधुपन तो ग्रंथिभेदादि होने के पश्चात् सम्यग्दर्शन प्रकट होने और
सर्वविरति का परिणाम प्रकट होने के बाद आता है। जो सर्वविरति को प्राप्त हैं, वे तो
ग्रंथिभेदादि किए हुए ही होते हैं। यह क्रिया मात्र की बात नहीं, परन्तु
परिणाम की बात है। सर्वविरति की क्रिया की जाए, यह अलग बात है और सर्वविरति
का परिणाम आए,
यह अलग बात है। शुद्ध क्रिया और परिणाम में एकरूपता हो, ऐसा प्रयत्न करना चाहिए, परन्तु ऐसा विरल जीवों में ही
हो पाता है। जो क्रिया चल रही हो, उससे सर्वथा विपरीत परिणाम अंदर चल रहे
हों, ऐसा बहुत बार होता है। अर्थात् सर्वविरति की क्रिया हो और परिणाम भिन्न या
विपरीत हों, ऐसा भी हो सकता है। इसी तरह देशविरति की क्रिया अलग चीज है और देशविरति का
परिणाम अलग वस्तु है। इसी तरह सम्यक्त्व की क्रिया और सम्यक्त्व का परिणाम ये भी
अलग-अलग हैं।
यथाप्रवृत्तिकरण,
अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण आदि करणों की जो बात की जाती
है, उसका अभिप्राय परिणाम से है। करण अर्थात् आत्मा का परिणाम। लोग तो प्रायः
क्रिया को देखते हैं। लोग हमें इस वेष में और इन क्रियाओं में देखकर साधु कहते
हैं। आप अणुव्रतादि बोलते हैं, इससे आपको देशविरतिधर कहते हैं, सम्यक्त्व
पाठ का उच्चारण करते हैं,
इसलिए सम्यक्त्वधर कहते हैं। परन्तु क्रिया तो बिना परिणाम
के भी हो सकती है। साधुपन की, देशविरति की या सम्यक्त्व की क्रियामात्र
से सर्वविरति,
देशविरति या सम्यग्दर्शन का परिणाम आ ही गया, ऐसा
नहीं माना जा सकता।
अभव्य और दुर्भव्य भी साधु और श्रावकपन की क्रियाएं कर सकते हैं, इस
लोक के सुख के लिए या परलोक के सुख की अपेक्षा से दीक्षा ली जाए और पाली जाए ऐसा
भी हो सकता है। सांसारिक सुख के लिए देशविरति के व्रतादि लिए जाएं और पाले जाएं, यह
भी हो सकता है। सम्यक्त्व की क्रिया भी इस लोक या परलोक के सुख के लिए की जाए, ऐसा
भी हो सकता है। बहुत सारी क्रियाएं देखादेखी या अच्छे दिखने के लिए भी की जाती है।
हमें तो यह देखना चाहिए कि ‘हम जो थोडी-बहुत भी धर्मक्रिया करते हैं, वह
किसलिए करते हैं?’
धर्मक्रियाएं तो अमृतवेल के समान हैं, परन्तु
जीव के परिणामों का कोई ठिकाना नहीं रहता। तो क्रियामात्र से कितना फल मिल सकता है? ‘संसार
के सुख का राग बुरी वस्तु है और मुझे उससे छूटना चाहिए’, ऐसा
अनुभव होना चाहिए। इतना हो और इसके लिए क्रिया हो तो वह बहुत सार्थक होती है।
परिणाम, वेश या क्रियामात्र से आता है, ऐसा नहीं है। गृहस्थ वेश वाले
को भी सर्वविरति का परिणाम आ सकता है। परन्तु सर्वविरति के परिणाम को टिकाने के
लिए साधु-वेश आदि की आवश्यकता होती है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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