धर्मक्रिया में से लौकिक सुख की अभिलाषा निकल गई न? परलोक
के पौद्गलिक सुख की अभिलाषा भी उड गई न? धर्म करने में अब धन, कीर्ति, इहलौकिक
या पारलौकिक पौद्गलिक सुख की अभिलाषा नहीं है न? तब धर्मक्रिया किसलिए? सबसे
पहले सम्यक्त्व पाने के लिए!
अब तक जीव भटका क्यों?
‘दुःख नहीं चाहिए और सुख चाहिए’, यह
ग्रह लगा हुआ था इसीलिए न?
सुख भी कौनसा? सांसारिक! भोगोपभोग का!
विषयजनित और कषायजनित! अब इस ग्रह के बदले सम्यक्त्व चाहिए, विरति
चाहिए। क्योंकि सम्यक्त्व और विरति आदि के आने पर ही इस संसार से छूट कर
मुक्ति-सुख का भोक्ता बना जा सकता है! यह सब आए तो धन, कीर्ति-भोग
आदि के लिए धर्म करने की अभिलाषा का अथवा गतानुगतिक चलने की वृत्ति का पाप, जो
धर्मक्रिया में आ घुसता है,
वह न आने पाए।
बात एक ही है कि ‘धर्म क्यों करते हो?’
तो कहना चाहिए कि ‘पहले सम्यक्त्व पाना है, इसलिए’! कोई
पूछेगा कि ‘तो फिर बाजार में क्यों जाते हो?’ उसे कहना चाहिए कि ‘पाप
का उदय है। संसार छूट नहीं रहा है, लोभादि पीडा देते हैं, मेरा
वश चले तो मैं बाजार में भी न आऊं और संसार का कोई काम भी नही करूं! मैं तो जहां
कहीं जाता हूं,
सब जगह यही झंखना करता हूं कि कब सम्यक्त्व आए और कब विरति
का परिणाम प्रकट हो।’
ऐसा आप कहें और कोई आपको इसलिए ‘पागल’ कहे
तो दुःख तो नहीं होगा?
संसार के प्रत्येक काम में आप ‘पाप का योग है, इसलिए
करना पडता है’,
ऐसा कहेंगे तो आपको पागल समझ सकते हैं। संसार के रसिया
शौकीन लोग ‘पागल’ कहें तो इसमें हानि क्या है? आप पाप का योग समझ कर ‘पाप
का योग’ बोलने लगेंगे तो आपके आसपास का सांसारिक वातावरण कमजोर पड जाएगा। इससे आपको
धर्म करने का,
तत्त्व को समझने का, तत्त्व-स्वरूप के चिंतन का
अधिक समय मिलने लगेगा। ‘हमें दूसरे लोग अच्छा कहें, समझदार कहें’, यह
सुनने की वृत्ति छोड दो। आजकल बहुत से लोग स्वार्थ के लिए मुंह पर अच्छा कहते हैं, परन्तु
पीठ पीछे निंदा करते हैं।
कतिपय तथाकथित रूप से सुखी मनुष्यों को ऐसी खराब आदत पड गई है कि उन्हें
जहां-तहां उनकी हां में हां मिलाने वाले चाहिए। ऐसे लोगों का पुण्य हो तो उन्हें
स्वार्थी खुशामदखोर मिल जाते हैं, परन्तु इससे उनको कितना अधिक नुकसान होता
है? बेचारे कषाय में दौडा करते हैं! हमें तो धर्म, धर्म के रूप में करना
चाहिए, अर्थात् आत्मा के सामने, भगवान की आज्ञा के सामने देखना चाहिए।
भगवान की आज्ञा में पूरी श्रद्धा ही सम्यक्त्व है। यह आ जाए तो जन्म सफल हो जाता
है।-आचार्य श्री
विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें