ज्ञानियों ने संसार को दुखःमय, दुखःफलक और दुःखपरम्परक कहा
है। जीवन के थोडे से भाग पर यथास्थिति रूप से विचार करके देखो। इसमें मन, वचन
और काया से कितने-कितने पाप किए? इन पापों के फल का विचार करो और फल भोगते
समय आत्मा समाधि के अभाव में जो पाप करता है, उसका खयाल करो, इस
रीति से विचार करो तो भी समझ में आएगा कि संसार दुखःमय, दुखःफलक
और दुःखपरम्परक है। ऐसे संसार को दृढ करने का ज्ञानियों ने कभी भी उपदेश दिया है
क्या? नहीं ही। और संसार को जो ज्ञानियों ने दुखःमय, दुखःफलक और
दुःखपरम्परक कहा है,
उसी संसार के आप रसिक बनो, ऐसा उपदेश साधुगण देते
हैं क्या? नहीं ही। सचमुच में सच्चे श्रावक भी ऐसी शिक्षा किसी को नहीं देंगे तो साधु तो
देंगे ही कैसे?
ऐसा होने पर भी आज कतिपय वेशधारीगण कैसा उपदेश दे रहे हैं,
वह देखो? मानो त्याग और वैराग्य के वैरी हों, उस ढंग से वेशधारी आज व्यवहार
कर रहे हैं।
श्री जैन शासन को पाया हुआ व्यक्ति तो त्याग और वैराग्य का वैरी हो ही नहीं
सकता, फिर वो चाहे श्रावक हो या साधु हो। त्याग थोडा हो सकता है, यह
संभव है; किन्तु त्याग के बिना जीवन जीना व्यर्थ है, यह मान्यता जैनियों में न हो, ऐसा
कैसे संभव है?
त्याग न दिखे, ऐसा हो सकता है, किन्तु
त्याग की भावना भी न हो,
ऐसा कैसे हो सकता है? और जिसमें त्याग की भावना न
हो, वह जैन कैसे? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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