घर, दुकान आदि ठीकठाक है,
इसकी उमंग से जीनेवाले श्रीमंत भी ‘बेचारे’ ही
हैं न? अन्यथा, धर्म जिसके हृदय में बसा हो, उसे तो विचार आता है कि यह सब पुण्याधीन
है, यह रहे या जाए,
परन्तु धर्म रहना ही चाहिए। कभी वह ऐसा भी विचार करता है कि
‘कदाचित धर्म करते हुए सब कुछ चला भी जाए तो क्या आपत्ति है? अशुभोदय आए तो ऐसा भी हो सकता
है। अशुभोदय आने की स्थिति में धर्म छोडने पर भी धनादि जा सकते हैं। इसलिए वह
समझता है कि ‘धर्म है तो सबकुछ है। धर्म को ही वह सच्चा धन मानता है।’
आपने मंत्रीश्वर पेथडशाह के बारे में पढा-सुना होगा। वे भगवान की पूजा किसलिए
करते थे? राज्य के लिए?
मंत्रीपद के लिए? धनादि के लिए? उनकी
देव-पूजा में एकाग्रता किसके आधार पर थी? आपको अनुभव होता है न कि धर्म
पर श्रद्धा ही उसका आधार था? अब आप यह भी विचार करें कि ‘आप
यहां जो कुछ भी शांति का अनुभव करते हुए बैठे हैं, उसका आधार क्या है? दुकान
का आधार है न?
घर का सहारा है न? आपके कुटुम्ब का बल है न? घर, कुटुम्ब
आदि का आधार हो या न हो,
यह बात अलग है, परन्तु आप मानते क्या हैं? इन
सब का बल है,
इसलिए इतना होता है, यह मानते हैं न? कहीं
भी धर्म की दृढ उमंग को आप मानते हैं क्या?
अभी घर से कुछ विचित्र या चिन्ताजनक समाचार आएं तो क्या आप व्याख्यान की
समाप्ति तक भी शांति से बैठे रहेंगे? घर जाने ही लगेंगे न?
सामायिक लेकर बैठे हों तो?
सामायिक में अकेले बैठे हों और पास में कोई न हो तो आप क्या
करेंगे, यह कहने जैसा है?
परन्तु, यहां सब के बीच में बैठे हैं, इसलिए
सामायिक अधूरी छोडकर नहीं जा सकते, ऐसा होता है न? आप
सामायिक में बैठे भी रहें तो भी मन में कैसी हलचल मचती है? ऐसे
जीव यहां व्याख्यान चलता हो तो भी घर के विचारों में ही निमग्न रहते हैं; क्योंकि
धुन ही उसकी होती है न?
उस समय व्याख्यान की बात कदाचित सुनाई भी पडे तो भी उस पर
विचार तो नहीं ही हो सकता। इस सम्बंध में यदि कुछ कहा गया हो तो उनका उत्तर होता
है कि ‘महाराज हमारे दुःख को क्या जानें?’ धर्म के सहारे जो जीता है, उसे
ऐसा विचार नहीं आता। वह तो समझता है कि संसार की कोई भी अच्छी समझी जाने वाली
वस्तु का मिलना,
टिकना, भोगना आदि पुण्याधीन है। पुण्य समाप्त
होने पर ऐसी चीज चली गई तो क्या हो गया? इसके बिना दुःख सहन करना
पडेगा तो सहन कर लूंगा। अशुभोदय से आने वाली विपत्ति संसार की चीजों से नहीं रोकी
जा सकती। चाहे जितनी विपत्तियां आए, परवाह नहीं, परन्तु
धर्म हृदय में बसा रहना चाहिए। विपत्ति के समय हृदय में धर्म न हो तो समाधि में
कौन रखेगा? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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