अनंत उपकारी,
अनंत ज्ञानी श्री जिनेश्वर देवों ने ‘तीर्थ’ किसे
कहा है, तीर्थ कितने महत्त्व की चीज है, इस जीवन में तीर्थ की आराधना
करने की कितनी आवश्यकता है और किस प्रकार से तीर्थ की सेवा करनी चाहिए; इन
सब बातों को अनंत ज्ञानियों ने जिस प्रकार से फरमाया है, उसे
यथार्थ रूप से समझ लेना चाहिए। यह समझ लेने के बाद ही तीर्थ की आराधना का सच्चा
उल्लास और अंतरंग भाव प्रकट हो सकता है। तीर्थ अर्थात् क्या? जिसके
योग से आत्मा संसार रूपी सागर को पार कर सकती है, उसी का नाम है तीर्थ! ‘तीर्थ’ शब्द
में ज्ञानियों ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र रूप तीन
अर्थ का समावेश किया है। रत्नत्रयी के उपदेश का नाम तीर्थ या रत्नत्रयी की आराधना
करने वाले वर्ग का नाम है तीर्थ! ज्ञानियों ने आत्मा को भी तीर्थरूप कहा है, क्योंकि
सम्यग्दर्शन,
सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र आत्मा के ही मौलिक गुण हैं।
रत्नत्रयी की आराधना के बिना संसार सागर तैरना असंभव है; इतना
समझ में आ जाए तो रत्नत्रयी तीर्थरूप लगेगी।
संसार यानी विषय और कषाय; जिस यात्रा से, जहां
की यात्रा से विषय-कषाय से दूरी बढती हो, किन्हीं अंशों में कदम दर कदम
उन विषय-कषायों से मुक्ति मिलती हो, वह तीर्थ। तीर्थयात्रा के योग
से हमारी आत्मा लघुकर्मी बने बिना रहे नहीं, ऐसी हमारी तीर्थयात्रा होनी
चाहिए। यों जंगम और स्थावर दो प्रकार के तीर्थ कहे गए हैं। जंगम में रत्नत्रयी के
आराधक साधु भगवंत और स्थावर में रत्नत्रयी की आराधना के लिए हम जिन तीर्थ स्थानों
पर जाते हैं वे आते हैं। इन दोनों के योग से हम भी रत्नत्रयी के आराधक बन सकते
हैं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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