अब से लगभग 90 वर्ष
पूर्व जब देश में अंग्रेजी हुकूमत थी, मुम्बई में एक धर्मसभा का आह्वान करते हुए सूरिरामचन्द्रजी
ने अत्यंत वेदना के साथ जो कहा, वह आज
की शिक्षा-व्यवस्था के मद्देनजर कितना प्रासंगिक है, विचार जरूर करिएगा-
"वैज्ञानिक युग के नाम पर आज कोई कानूनविद् बना तो कोई
डॉक्टर बना। उनके कपडे तो उजले, किन्तु
उनकी कार्यवाही देखो तो बदबू मारते गटर जैसी है। कानून पढा हुआ गुनाह करता है? कानून पढा हुआ चोरी करता है? कानून पढा हुआ किसी को ठगता है? कानून
पढा हुआ सौ के बिल पर एक और जीरो बढाता है? हिसाब पढा हुआ जमा को उधार और उधार को जमा करता है? इतिहास पढा हुआ गप्पे लगाता है? हिसाब-किताब
की बहियां दो, जुबान दो, दिल में दूसरा और मुँह पर दूसरा; ऐसी यह बीसवीं सदी? सब ऐसे
पैगम्बर? अपराधी को निरपराधी ठहराना यह
शिक्षा है? ऐसी शिक्षा, ऐसा विद्या प्रचार यह तो जहर का प्रचार है? पढे इसलिए नीचे नहीं बैठे, पढे इसलिए चाय, पान, बीडी, सिगरेट
बिना नहीं चले। पढे नहीं ये तो भूले हैं। शिक्षा को लजाया है। ऐसी शिक्षा-संस्थाओं
को नहीं निभाया जा सकता। एक नए पैसे का भी दान ऐसी संस्थाओं को नहीं दिया जाना चाहिए।
यह तो पाप का दान है। आपको यह खंजर के घाव जैसा लगेगा, बहुत कडवा लगेगा; किन्तु सच्ची शिक्षा हो
तो ऐसी दशा हो? पढे-लिखे आज पैसों के लिए भीख
मांगते हैं, लोगों की दाढी में हाथ डालते हैं।
आज आवाज उठ रही है कि पढे हुए भीख मांग रहे हैं और इससे शिक्षा के प्रति कई लोगों के
मन में तिरस्कार का भाव जागृत हो रहा है। मैं कहता हूं कि पेट भरने के लिए पढनेवाले
तो भूखे मरें, इसमें नई बात क्या है? विद्या जैसी अनुपम चीज पेट के लिए खरीदी जाए तो परिणाम यही आएंगे।
पेट के लिए विद्या पढनेवालों का पुण्य जागृत हो तो बात अलग है, नहीं तो कटोरे के लिए ही इस विद्या को समझना। पहिनने की टोपी
में ही चने फांकने के दिन आएंगे, क्योंकि
आपने विद्या का अपमान किया है। आज इस बात का अनुभव होता है और भविष्य में भी होगा।"
"पापक्रिया बढी, उसकी अनुमोदना बढी, उसकी प्रशंसा बढी, परिणाम स्वरूप दरिद्रता
और भिखारीपन आया। जो मांगा वह आया दिखता है और ऐसा ही चलता रहेगा तो अधिक आनेवाला है।
इसमें पुण्यवान को भी शामिल होना पडेगा। पडौस में आग लगती है तब बगल वाले घर में भी
जार लगती है, आँच आती है। पापी के साथ बसनेवाले
पुण्यवान को भी आँच लगने ही वाली है। सावधान रहेंगे तो बचेंगे। आपको सावधान करने के
लिए यह मेहनत है।"
आज समाज में संस्कारों की कितनी कमी होती जा रही है? आजकल के माता-पिता को फुर्सत नहीं है कि वे आधा घंटा भी अपने बच्चों के पास
बैठकर उन्हें धर्म की शिक्षा दें, समझाएं, अच्छे संस्कार दें। वह माता शत्रु के समान है, जिसने
अपने बालक को संस्कारित नहीं किया। वह पिता वेरी के समान है, जिसने अपने बच्चे को संस्कार नहीं दिए। आजकल के माता-पिता तो अपने बच्चों को
अच्छी शिक्षा के नाम पर कान्वेन्ट में डाल देते हैं। आप सोचते हैं कि कान्वेन्ट
में पढने जाएगा तो हमारा बच्चा इन्टेलीजेन्ट (चतुर) बनेगा। पढ-लिखकर होशियार बन
जाएगा और बडा आदमी बन जाएगा। लेकिन, वहां जो शिक्षा परोसी जाती है, उसमें आत्मा कहां है? वहां तो जहर ही जहर है।
शिक्षा के नाम पर ठगी
शिक्षा संस्थानों में आज तो "सा विद्या या विमुक्तये" का बोर्ड लगाकर ठगने
का धंधा किया जाता है, क्योंकि आज के शिक्षण में मुक्ति की तो
कोई बात होती ही नहीं है। "सा विद्या या विमुक्तये" का अर्थ तो यह कि जो विद्या मुक्ति का बोध दे, लेकिन
आज के स्कूल-कॉलेजों में मुक्ति के शिक्षण का स्थान तो स्वच्छंदता और
विनाशक-विज्ञान ने ले लिया है। सारी पीढी बिगड रही है, यह
आप आँखों से देख रहे हैं, फिर भी हम से पूछते हैं कि ‘शिक्षण में खराबी क्या है?’ जीवन का निर्माण बाल्यकाल से
प्रारम्भ हो जाता है। बच्चों को हृदय की पवित्रता का मूल्य उतना नहीं बताया जाता, जितना दूसरी चीजों का बताया जाता है। आज शिक्षा में नैतिक अवमूल्यन की समस्या
पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। हृदय की पवित्रता केवल साधुओं के लिए ही
महत्त्वपूर्ण नहीं है, शासकों और परिवार के सदस्यों के लिए भी
बहुत जरूरी है। साधारण व्यक्ति प्रवाह के पीछे चलता है। ‘यथा
राजा तथा प्रजा’
कहावत ही नहीं, यथार्थ है। जब एक
व्यक्ति उचित-अनुचित ढंग से सत्ता प्राप्त कर कथित बडा आदमी बन जाता है, तब दूसरा आदमी भी सोचता है कि भ्रष्ट तरीके से पैसा कमाकर बडा आदमी बना जा
सकता है। सत्ता पर जब धर्म का अंकुश नहीं रहता, तो
वह निरंकुश हो जाती है। सत्ता राष्ट्र की हो या परिवार की, उस
पर से जब-जब धर्म का अंकुश हटता है, वह उन्मादी हो जाती है।
प्रवाह को वही मोड सकता है, जो असाधारण हो, जो सत्ता और अर्थ प्राप्ति के लिए भ्रष्ट उपायों का सहारा न ले।
शिक्षा-व्यवस्था को बदलने की जरूरत
शिक्षक का वास्तविक कार्य तो यह है कि वह भाषा आदि सब
सिखाने के साथ बालक को समझदार बनाए और उसमें ऐसी क्षमता विकसित करे कि वह अपने आप
संस्कारी बने। माता-पिता ने यदि योग्य संस्कारों का सिंचन किया होता तो शिक्षक का
आधा कार्य पूर्ण हो गया होता। फिर शिक्षक को केवल माता-पिता द्वारा प्रदत्त
संस्कारों को विकसित करने की ही जिम्मेदारी रहती। भाषाज्ञान सिखाना यह वस्तुतः
ज्ञान-दान नहीं,
अपितु ज्ञान के साधन का दान है। सद्गुण प्राप्ति का और
अवगुण त्याग का शिक्षण, यही शिक्षा का साध्य है।
परन्तु,
आज तो प्रायः जैसी माता-पिता की हालत है, वैसी शिक्षक की भी हालत है। सच्चा शिक्षक मात्र किताबी ज्ञान तक ही सीमित नहीं
होता। सच्चा शिक्षक तो विद्यार्थी में सुसंस्कारों का सिंचन करता है। मात्र किताबी
ज्ञान तक सीमित रहने वाला और विद्यार्थियों के सुसंस्कारों का लक्ष्य नहीं रखने
वाला शिक्षक,
शिक्षक नहीं, अपितु एक विशिष्ट मजदूर मात्र
है। हमारे सोच को और हमारी बेकार हो चुकी समग्र शिक्षा-व्यवस्था को आज बदलने की
जरूरत है। सब अपना कर्तव्य पालन करें और आने वाले कल को सुसंस्कारी बनाएं।-सूरिरामचन्द्र
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