एक निवेदन-
आज के इस दिवस के लिए मैंने बहुत ही सिद्दत और आत्मा की गहराई से एक आलेख तैयार
किया है, किन्तु वह बहुत लम्बा है। मैं
बहुत ही दिल से चाहता हूं कि आप लोग चाहे जिस समुदाय, धर्म को मानते हों; एक बार
इसे बहुत ही शान्ति से पढें और टिप्पणी कर मेरा मार्गदर्शन करें।
महावीर
इस युग के सबसे बडे मनोवैज्ञानिक
हम बहुत सौभाग्यशाली हैं कि हमें श्रमण भगवान महावीर स्वामी
का 2,614 वां जन्म कल्याणक मनाने का सुअवसर प्राप्त हुआ है।
यह तो आप सभी प्रायः जानते ही हैं कि प्रभु महावीर का जन्म
वैशाली गणराज्य के कुण्डलपुर में हुआ। माता त्रिशला ने 14 स्वप्न
देखे,
उनके पिता सिद्धार्थ थे, भाई
नंदीवर्द्धन थे। प्रभु ने 30 वर्ष की अवस्था में संयम
ग्रहण किया,
साढे बारह वर्ष तक घोर तपश्चर्या की और फिर केवलज्ञान
प्राप्त किया। तीर्थ की स्थापना की। इसके बाद तीस वर्ष तक ग्रामानुग्राम विचरण
करते हुए उन्होंने मोक्षमार्ग का उपदेश दिया और उसके पश्चात उन्होंने निर्वाण
प्राप्त किया। वे हमारे 24वें तीर्थंकर हुए।
उनकी संयम यात्रा के दौरान उन्होंने समाज को जैसा देखा-जाना, उसका उन्होंने मनोवैज्ञानिक समाधान दिया, इसलिए
वे इस युग के सबसे बडे मनोवैज्ञानिक हैं। मनोविज्ञान आप समझते हैं? साइकोलॉजी?
मन का विज्ञान? आदमी तनावग्रस्त क्यों
है?
आदमी डिप्रेशन में क्यों है? आदमी
क्रूर और हिंसक क्यों है? आदमी क्रोधी क्यों है? घर में महिलाएं बर्तन क्यों पटकती हैं? मर्द
औरत को क्यों पीटता है? क्यों उसमें अहंकार है? क्यों लोग आत्महत्या कर लेते हैं? कैसे उन्हें आत्महत्या
से बचाया जा सकता है? औरतें हिस्टीरिया में पछाडे खा रही है, उसका उपचार क्या है? इंसान को गंदे और नकारात्मक
विचार क्यों आते हैं? लोभ, लालच, अहंकार,
माया, असुरक्षा की भावना, परिग्रह,
प्रतिस्पर्द्धा, शोषण, मानसिक दरिद्रता, व्यघ्रता, दुश्चिन्ता, अनिद्रा,
बेचैनी, अशान्ति, दुःख,
विशाद और इस तरह के कई सवाल हैं जो मनोविज्ञान से संबंधित
हैं। सात सौ से ज्यादा प्रकार की बीमारियां हैं जो मनोविज्ञान से संबंधित हैं।
बीपी,
शूगर, एसीडिटी, हाइपरटेंशन और इस प्रकार की कई बीमारियां, जिनका
उपचार महान मनोवैज्ञानिक भगवान महावीर स्वामी ने बताया है। स्थानांग सूत्र में भी
विभिन्न बीमारियों के कारण बताए गए हैं।
आजकल एक आम बीमारी है ‘नींद
नहीं आती’। आप तो नींद की गोली ले लेते हैं, इस डर से कि नींद नहीं
आएगी तो बीमार हो जाएंगे, दूसरे दिन काम कैसे करेंगे? लेकिन महावीर ने तो संयम ग्रहण करने के बाद अपने पूरे छद्मस्थ काल में नींद ली
ही नहीं,
उन्हें तो कई टुकडों में कुछ क्षणों की झपकियां ही आईं, जो पूरे छद्मस्थ काल में कुल मिलाकर मात्र एक अंतर्मुहूर्त, लगभग 48
मिनिट जितने समय की होती हैं। वे तो सीधे-सपाट कभी सोए ही
नहीं,
निरन्तर कायोत्सर्ग और ध्यान में ही रहे। और आहार कितना
किया?
साढे बारह वर्ष में कुल मात्र 349 दिन।
कुल मिलाकर एक वर्ष के जितना समय भी नहीं। लगभग 4,550 दिनों में से मात्र 349 दिन एक समय आहार लिया। फिर भी
उन्होंने ग्रामानुग्राम विचरण किया। इतने उपसर्ग सहे। कभी किसी चण्डकौशिक जैसे
भयंकर सांप ने काटा, तो कभी संगम जैसे देव ने उन्हें पछाडा, तो कभी किसी ग्वाले ने कान में कीले ठोक दिए! सबकुछ सहन किया, कभी ऊफ तक नहीं किया। वे अपने लक्ष्य से पीछे नहीं हटे।
यहां तक कि केवलज्ञान प्राप्त करने और तीर्थ की स्थापना
करने के बाद भी प्रभु महावीर को चैन नहीं था। प्रभु महावीर ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ जिन
सिद्धान्तों का प्रतिपादन कर लोगों को दुःख-मुक्त करना चाहते थे, उसका भी प्रबल विरोध करने वाले उस समय थे। ऐसे अलग-अलग धार्मिक मान्यताओं वाले
363
विरोधी मतावलम्बी तो स्वयं भगवान के समवसरण में आकर बैठते
थे और वहां देशना सुनने के बाद बाहर जाकर विचार करते थे कि इन बातों का खण्डन कैसे
किया जाए और वे दुष्प्रचार करते थे। गोशाला और जमाली जैसे लोगों ने भगवान से ही
ज्ञान प्राप्त कर भगवान के खिलाफ अपना पंथ चलाया और लोगों को सुविधा-भोगी बनाया।
प्रभु के 14,000
साधु, 36,000 साध्वियां और 1,59,000 श्रावक व 3,18,000
श्राविकाएं; इस प्रकार कुल 5,27,000 अनुयायी थे,
जबकि गोशाला के 11 लाख अनुयायी थे; लेकिन आज उनका कहीं अस्तित्व नहीं है। क्योंकि वे मिथ्यात्वी थे। गोशाला को और
जमाली को ज्ञान का अपच हो गया था। तो ऐसे प्रभु महावीर जिनकी वाणी ध्रुव सत्य है, जिसे न कभी कोई चुनौती दे सका और न दे सकेगा, उनके
आप अनुयायी हैं,
यह कितने गर्व की बात है। वे राग और द्वेष से रहित थे, वीतरागी थे,
इसलिए उनकी वाणी कभी गलत हो ही नहीं सकती। गलत बात तभी बोली
जाती है,
जब कोई तुच्छ स्वार्थ हो, उनका
कोई स्वार्थ था ही नहीं, वे तो वीतरागी, सिद्ध-बुद्ध-मुक्त थे। लेकिन, उन्होंने इस सत्य को पाने के लिए, जीवों के कल्याण के लिए कितना कुछ सहा, यह
चिन्तन का विषय है। ऐसा आपके काम और व्यवसाय में विरोधियों का विघ्न हो, आपके पास बैठकर आपके व्यवसाय की बातें सुनकर, आपको
ही काटने पर उतारू हो जाएं, तो आप कितने तनाव में आ
जाएंगे?
आपके बीपी का क्या होगा? आपकी
नींद का क्या होगा? लेकिन, भगवान
महावीर को कभी इसका तनाव या चिन्ता हुई? नहीं!
आप कहते हैं कि खाना नहीं खाएंगे तो कमजोर हो जाएंगे, खाना भी कैसा? पीजा, बर्गर, फास्टफूड,
जंकफूड, पेप्सी, कोला,
भक्ष्य-अभक्ष्य का विवेक किए बिना जो आया उसे ठूंसना है, क्योंकि जुबान को स्वाद आता है, इन्द्रियों की गुलामी करनी
है! नींद भी पूरी चाहिए, खाना भी पूरा चाहिए, त्याग नहीं हो सकता, इसमें कमी होगी तो बीमारियां
होंगी। फिर महावीर बीमार क्यों नहीं हुए? बडे-बडे राजे-महाराजे, बडे-बडे श्रेष्ठी, शालीभद्र जैसी कोमल काया, अपार ऋद्धि-सिद्धि को छोडकर महावीर के पीछे निकल पडे, ये
सभी कभी बीमार क्यों नहीं हुए? कभी आपने यह नहीं सोचा कि इन इन्द्रियों
की गुलामी और जिव्हा के स्वाद के कारण हमारी आधी से ज्यादा बीमारियां हैं? मन और इन्द्रियां आपके वश में नहीं है, इसलिए
ये बीमारियां हैं। महावीर के उपदेशों पर आपकी दृढ श्रद्धा और विश्वास नहीं है, उनको जीवन में ढालने के प्रति आप में उदासीनता है, शुद्ध
संयम के प्रति आपके मन में उदासीनता है, इसलिए ये बीमारियां
हैं। भगवान महावीर को तो यह सब बीमारियां नहीं हुई। आप कहेंगे कि वे तो भगवान थे!
बस,
उन्हें भगवान कहते ही सब बात खत्म! हम जब किसी को भगवान मान
लेते हैं तो आगे कुछ करने को रहता ही नहीं है। वे तो भगवान थे, वे तो सबकुछ कर सकते थे, हम तो इंसान हैं, हम यह नहीं कर सकते। यह केवल जी चुराने या अज्ञानता की बात है। यह गलत है।
पहली बात तो यह कि वे भगवान नहीं थे। वे साधारण इंसान थे, उनमें
इंसानियत थी और इंसान के रूप में उन्होंने जो कुछ पुरुषार्थ किया, राजपाट,
अपार रिद्धि-सिद्धि और राजसी सुख-भोग का त्याग किया, संयम ग्रहण किया, उग्र तपस्याएं की, उससे
अतिशय लब्धियां हांसिल की, केवलज्ञान प्राप्त किया, उससे वे हमारे लिए भगवान बने, हमें रास्ता दिखाया, इसलिए हम उन्हें भगवान कहते हैं, मानते हैं, पूजा करते हैं; और उन्होंने हमें रास्ता भी कैसा दिखाया
कि जिस पर चलकर हम स्वयं भगवान बन सकें, सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो
सकें।
बात दरअसल यह है कि हम उस रास्ते पर चलने की बजाय, उसकी पूजा में ही लग गए। हमें किसी गांव जाना है, किसी
ने बताया कि उस गांव का रास्ता इधर है, हम उस रास्ते पर आगे
बढने की बजाय,
वहीं बैठकर रास्ते की पूजा करने लगें तो क्या उस गांव में
पहुंच सकते हैं?
नहीं! इसी प्रकार हम सभी चाहते तो मोक्ष हैं, हम चाहते तो अक्षय सुख और अक्षय आनंद हैं, किन्तु
उसके लिए पुरुषार्थ नहीं करना चाहते हैं। मोक्ष यदि हमारी मंजिल है तो वहां
पहुंचने के लिए आचरण का पुरुषार्थ तो करना पडेगा न? आज
तो हम धर्म कर रहे हैं लौकिक ऐषणा के लिए। धर्म के प्रभाव से मुझे स्वर्ग मिल जाए, धर्म के प्रभाव से भौतिक सुख-सुविधा, ऋद्धि-सिद्धि मिल जाए।
मिल जाएगा,
लेकिन इसका अंतिम परिणाम क्या होगा? धर्म
सबकुछ देता है,
धर्म करने से सबकुछ मिलता है, लेकिन
लक्ष्य मोक्ष का ही होना चाहिए; तो पुण्यानुबंधी पुण्य का
उपार्जन होगा;
परन्तु यदि हमने और किसी चीज की कामना कर ली तो पापानुबंधी
पुण्य उपार्जित होगा, जिसके फलस्वरूप चाही गई वस्तु तो आपको मिल
जाएगी,
लेकिन वह अंततोगत्वा आपको पाप मार्ग पर लेजाकर दुर्गति का
मेहमान बनाएगी। जबकि मोक्ष की और सिर्फ मोक्ष की ही आकांक्षा से आप धर्म करेंगे तो
पुण्यानुबंधी पुण्य से आपको सबकुछ मिलेगा और वह आपको पाप की ओर नहीं ले जाएगा।
(वासुदेव और प्रतिवासुदेव लक्ष्मण और रावण का क्या हुआ? वे
दोनों अपने पूर्व जन्मों में जैन साधु थे और दोनों ने काफी उग्र तपस्याएं की थीं, लेकिन अपनी तपस्या के फलस्वरूप बडे राज्य और सुन्दर रानियों, ऋद्धि-सिद्धि की मांग कर ली। परिणाम स्वरूप उन्हें अपने अगले जन्म में वह
सबकुछ मिल गया,
किन्तु उसका अंतिम परिणाम क्या हुआ?) आज
तो स्थितियां बहुत ही विकट हो गई है, हम तीर्थंकर भगवानों
को गौण कर उनकी सेवा में रहने वाले देवी-देवताओं की खुशामद में लग गए हैं। अपने
सोचने का,
चिंतन का थोडा नजरिया बदलिए। धर्म को वास्तविक स्वरूप में
अपनाइए और उसकी सही आराधना करिए, प्रभु महावीर के सिद्धान्तों
को आचरण में ढालिए और फिर देखिए उनका कमाल। खैर...... मैं पुनः अपनी मूल बात पर
आता हूं।
भगवान महावीर जिद्दी थे। मैं यहां भगवान को जिद्दी कहकर उनकी
अवमानना,
आशातना नहीं करना चाहता हूं। मेरे लिए तो वे पूज्य हैं, आदरणीय हैं,
आचरणीय हैं। वे जिद्दी थे, कैसे? वे दृढ संकल्पी थे, कैसे? उनकी
जिद्द थी संयम की, उनकी जिद्द थी तपस्या की, उनकी जिद्द थी जीव मात्र की समस्या का समाधान पाने की, उनकी
जिद्द थी सिद्ध-बुद्ध-मुक्त बनने की और सभी जीवों के कल्याण की, सभी को दुःख-मुक्त होने, बीमारियों से मुक्त होने का
रास्ता बताने की।
महावीर ने देखा कि सामाजिक जीवन में न केवल आर्थिक विषमता
है,
प्रत्युत वर्गभेद भी चरम पर है, मानव-मानव
के मन में एक-दूसरे के प्रति ममता और सौहार्द के स्थान पर घृणा-ग्लानि कूट-कूट कर
घर कर गई है। समाज में स्त्रियों का स्थान अत्यंत नगण्य है, दास और दासियों के रूप में मनुष्य, स्त्री और बालकों का
क्रय-विक्रय ठीक उसी प्रकार हो रहा है, जिस प्रकार सामान्य
उपभोग की वस्तुओं का। महावीर के मन में विराग जन्मा, उसका
एक कारण समृद्धि में से जन्मा त्याग था, परन्तु उससे अधिक
महावीर ने अपने चारों ओर के सामाजिक वातावरण को जैसा देखा-समझा और युग के आह्वान
को जिस तीव्रता के साथ अनुभव किया, उससे उन्हें लगा कि यह सारा
समाज जैसे ‘त्राहिमाम्-त्राहिमाम्’ की आवाज देकर उन्हें बुला रहा
है। ‘सवी जीव करूं शासन रसि’, यह भावना जब तीव्र होती है, तो तीर्थंकर गौत्र का बंध होता है। आप महावीर के 27 भवों
का खयाल करेंगे तो आपको इस बात की पुष्टि हो जाएगी। महावीर ने अनुभव किया कि जैसे
चारों ओर से अनगिनत आवाजें उन्हें पुकार-पुकार कर कह रही हों कि हमारी विषमताएं, हमारी उपेक्षाएं, हमारी असमर्थताओं के कारण होता हमारा
दुरुपयोग,
हमारे अभाव और दयनीय स्थिति को आकर देखो और उसका समाधान दो।
महावीर को लगा कि इसके लिए यह पारिवारिक जीवन छोडना पडेगा।
जब तक वे राजभवन नहीं छोडेंगे, तब तक न जनसामान्य की आवाज उन
तक पहुंच सकेगी और न ही उनकी आवाज जनसामान्य तक पहुंच पाएगी और न ही सही-सटीक
समाधान प्राप्त हो सकेगा। वे सबकुछ छोडकर निकल पडे। साढे बारह वर्ष तक एकान्त
चिंतन और कठोर जीवन जीने के तरह-तरह के प्रयोग वे करते रहे और इसके लिए घोर
उपसर्गों को सहन किया। वे एक गांव से दूसरे गांव, एक
स्थान से दूसरे स्थान नंगे पैर पैदल विहार करते रहे, लगातार
और बस लगातार चिंतन, ध्यान करते हुए प्रत्येक समस्या का
उन्होंने समाधान खोज निकाला, वे केवलज्ञानी हुए और इसके
बाद उन्होंने समाज को नई दिशा दी, नया चिंतन दिया, जिसमें सभी की समस्याओं के समाधान थे। इसी के लिए उन्होंने तीर्थ की स्थापना
की।
और फिर उन्होंने बताया कि किस प्रकार इन बीमारियों से बचा
जा सकता है। पूरा विज्ञान और मनोविज्ञान उन्होंने समझाया। जीव-अजीव आदि सभी
तत्त्वों का ज्ञान दिया, उनके भेद-प्रभेद बताए। महावीर
ने जो कुछ और जितना कुछ बताया, वहां तक पहुंचने में तो अभी
आधुनिक विज्ञान को हजारों साल लग जाएंगे, फिर भी वह पूरा नहीं
समझ सकेगा। पानी और वनस्पति में जीव हैं, हजारों की संख्या में
जीव हैं,
उनमें संवेदनाएं हैं; यह
बात सबसे पहले हमारे ही तीर्थंकरों ने बताई। यहां तक पहुंचने में ही आधुनिक
विज्ञान को कितना समय लग गया? वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बसु ने
10
मई, 1901 में लंदन के
वैज्ञानिकों के समक्ष प्रयोग द्वारा सिद्ध किया कि वनस्पति में जीव और संवेदना है।
लेकिन,
हमारे तीर्थंकर भगवंतों ने तो इसे हजारों हजार वर्ष पूर्व
ही बता दिया था। इसी प्रकार हिंसा-अहिंसा का भेद और परिणाम उन्होंने बताया। क्या
पाप है,
क्या पुण्य है और ये किस प्रकार मनोवैज्ञानिक तरीके से काम
करते हैं,
परिणाम देते हैं, यह सब उन्होंने बताया? राग-द्वेष,
काम-क्रोध, मोह-मान-माया-लोभ ये ही सब
मनोविकारों,
मानसिक बीमारियों की जड हैं, इन्हें
छोडो। यही सब सामाजिक विषमताओं की जड हैं, इन्हें
खत्म करो। यह सब उन्होंने बताया।
महावीर ने कहा ‘दुःख को सहो और सुख
में आसक्त मत बनो’। जिन्होंने आज का विज्ञान पढा है, उन्होंने गुरुत्वाकर्षण, प्रत्यास्थता और सापेक्षता के
सिद्धान्त जरूर पढे होंगे। हम जिस चीज को जितना जोर से ऊपर की ओर फेंकेंगे, उछालेंगे;
वह दुगुने वेग से हमारी ओर वापस आएगी। आप एक बॉल को जोर से
दीवार पर मारेंगे, तो वह दुगुने वेग से वापस आपकी ओर लौटेगी।
यही हाल सुख और दुःख का है। आप दुःख को जितना दूर भगाने का प्रयास करेंगे या आप
दुःख से जितना बचकर भागने की कोशिश करेंगे, उतना
ही द्विगुणित होकर वह आपके पास आएगा, इसलिए अच्छा है कि आप
उससे बचने या भागने की बजाय उसे सहन कर लें, ताकि
वह फिर नहीं लौटे, यह ‘कर्म
बंध और निर्जरा’
का सिद्धान्त है। यही स्थिति और सिद्धान्त आप सुख पर भी लागू
करिए। आप जितना सुख भोगने से बचेंगे, उसके प्रति आसक्ति से
बचेंगे,
उसके प्रति निर्मोही बनेंगे, उसका
त्याग करेंगे,
उतना ही वह गुणित होकर आपके पीछे-पीछे दौडेगा, यह ‘पुण्य का स्वभाव’ है।
मन के वैर-भाव को दूर करने के लिए ‘अहिंसा’, बुद्धि की झडता, और आग्रह को मिटाने के लिए व बुद्धि की
निर्मलता के लिए ‘अनेकान्त’ तथा
सामाजिक व राष्ट्रीय विषमता को दूर करने के लिए ‘अपरिग्रह’ परमावश्यक तत्त्व हैं। इस प्रकार अहिंसा, अनेकान्त
और अपरिग्रह आधुनिक समाज के लिए प्रभु महावीर की सबसे बडी देन है। इन तीनों ही
सिद्धान्तों को न केवल जैन समाज के परिप्रेक्ष्य में, बल्कि
आप अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में भी देखिए तो महावीर के सिद्धान्तों की
उपयोगिता और प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होगा। अहिंसा और अनेकान्त के
प्ररिप्रेक्ष्य में आप संयुक्त राष्ट्र संघ और उससे जुडी संस्थाओं की भूमिका देख
सकते हैं। हमारे देश के स्वतंत्रता आंदोलन को इस संदर्भ में देख सकते हैं।
अपरिग्रह के ताजा उदाहरणों को देखिए तो दुनिया के नम्बर वन अरबपति ने अपनी सारी
सम्पत्ति दान कर दी और विश्व के अनेक देशों में उस सम्पत्ति से जरूरतमंदों की सेवा
की जा रही है और बिलगेट्स दम्पत्ति स्वयं व्यक्तिगत रूप से जाकर उस काम की
वास्तविकता को देख रहे हैं। दुनिया के नम्बर दो अरबपति वॉरेन बफेट ने अपनी आधी
सम्पत्ति बिलगेट्स फाउण्डेशन को दे दी। बिलगेट्स ने अपनी संतान के लिए क्या कहा- ‘मैंने उसे काबिल इंसान बना दिया जो मेरा फर्ज था। अब वो अपनी आजीविका स्वयं
चलाएगा।’
भारत में भी हाल ही अजीम प्रेमजी ने अपनी सम्पत्ति का बहुत
बडा हिस्सा दान कर दिया। हमारे यहां भगवान महावीर के शासन में तो यह आम परम्परा
रही है कि बडे-बडे राजे-महाराजे अपना सबकुछ छोडकर निकल जाते थे। बडे-बडे श्रेष्ठी
पुत्र के काबिल होते ही उसे सबकुछ सौंपकर संयम मार्ग पर अग्रसर हो जाते थे। जैन
धर्म की यह बात इतिहास के पन्नों में ही नहीं है, इसे
जीवन्त रूप में मैंने गुजरात में तपागच्छ सम्प्रदाय के इतिहास पुरुष, महान् धर्मयौद्धा, क्रान्तिकारी आचार्य श्री
रामचन्द्रसूरीश्वरजी म. की समुदाय में वर्तमान में भी देखा है। 1400 साधु-साध्वियों के इस समुदाय में बडे-बडे करोडपति-अरबपति अपना सबकुछ छोडकर
आत्म-कल्याण के लिए दीक्षित हो गए।
अभी दो वर्ष पहले ही मैंने गुजरात के अरबसागर से लगे गांधार
में इस समुदाय में हुई 17 दीक्षाओं के समय वर्तमान गच्छाधिपति
आचार्य पुण्यपालसूरीश्वरजी और महान ओजस्वी प्रवचन प्रभावक आचार्य श्री विजय
कीर्तियशसूरीश्वरजी की वाचनाएं सुनीं। मैं स्तब्ध था, चिन्तन
करने को विवश था। नवदीक्षितों को हित-शिक्षा देते हुए कहा गया कि-
‘ध्यान रहे संयमी जीवन कष्टों से भरा पडा है, लेकिन
उन्हीं के लिए जो पौद्गलिक सुखों में ही सुख समझते हैं, जिसमें
दुःख अवश्यम्भावी रूप से अंतर्निहित है। अन्यथा तो आनंद ही आनंद है। इसलिए सनद रहे
कि दुनिया के सत्ताधीशों, पूँजीपतियों और भोगियों को
देखकर आपके मन में गुदगुदी न हो, यदि गुदगुदी हो गई तो निश्चित
मानिए कि आपके कई भव बिगड जाने वाले हैं। उनके प्रति करुणा हो कि ये कितने कर्म
बांध रहे हैं,
इनकी दुर्गति कैसे टले, कैसे
ये सन्मार्ग पर आएं? आप गुणों की खान परमतारक गुरुदेव के
परिवार में सम्मिलित हुए हैं, इसका आप लोगों के मन में गौरव
हो और इसके लिए जरूरी है कि आप उनके उपदेशों को अपने जीवन में आत्मसात् करें।’
मोह पर पूरी तरह नियंत्रण करने और राग को जीतने के लिए एक
उपाय के रूप में उन्होंने नवदीक्षितों से कहा कि ‘आप
लोगों को कम से कम दस वर्ष तक अपने संसारी रिश्तेदारों को, जिन्हें
आप छोडकर इस मार्ग पर आए हैं, उन माता-पिता व अन्य
सगे-संबंधियों तथा मित्रों की ओर नजर उठाकर भी नहीं देखना है, उनसे किसी प्रकार का वार्तालाप नहीं करना है, वे
आएं और आपको पूछें कि कैसे हो, तो इतना ही कहना है कि ‘देव-गुरु-धर्म की कृपा है!’ या ‘धर्म-लाभ’, ‘जो हमें मिला है, वह आप भी प्राप्त करें’, कहकर अपने स्वाध्याय में जुट जाना है। यदि किसी विशेष प्रसंगवश ज्यादा बात
करनी हो तो अपने गुरु के समक्ष खडे होकर बात करें।’
यहां साधु-साध्वियों के लिए हुई वाचनाओं में मुझे बैठने का
अवसर मिला,
जहां इस समुदाय की पूरी सच्चाई और आचार-विचार प्रतिबिम्बित
होता था। ऐसी ही एक वाचना का अंश इस प्रकार है- ‘आज 70 से 80
फीसदी शारीरिक तकलीफों का कारण जीवन जीने की शैली में आया
परिवर्तन है और इसमें आहार की मुख्य भूमिका है। यदि हमारा आहार, हमारी संयमचर्या मर्यादानुकूल हो तो इन तकलीफों से बचा जा सकता है। हमारी
संयमचर्या,
आहारचर्या, तपचर्या, विहारचर्या सम्यक होनी चाहिए। खान-पान, रहन-सहन, आचार-विचार का असंयम शारीरिक पीडाओं का महत्त्वपूर्ण कारण तो है ही, मनोरोगों का कारण भी है। कुछ आंतरिक पीडाओं से पीड़ित हैं तो इसका भी कारण है
स्वाध्याय के प्रति उल्लास की कमी। इन बीमारियों से हमारा समुदाय अब तक काफी हद तक
बचा हुआ है और हमें इसमें सावधानी रखनी है, ताकि
ये रोग हमारे अन्दर प्रविष्ट न करे। इसके लिए जरूरी है कि आप स्वाध्याय में अनवरत
रमण करें। अधिकांश मानसिक रोग अपेक्षाओं से पैदा होते हैं, इनमें
मिथ्यात्व की भी बडी भूमिका होती है।’
‘एगभत्तं च भोयणं’, एक समय भिक्षाचर्या करें, बिलकुल नहीं ही चल सके या अस्वस्थता की स्थिति है तो दूसरे समय जाएं, बस!’ यह है जैनाचार।
मैं फिर अपनी मूल बात पर ले जाना चाहता हूं। क्या हमने कभी
यह सोचा है कि हमारी सभी प्रकार की बीमारियों, विषमताओं, दुःखों,
क्लेशों को मिटाने वाले और इस दुःखमय, दुःखफलक और दुःखपरम्परक भव सागर से पार ले जाकर हमें भी अक्षय सुख और अक्षय
आनंद का रास्ता दिखाने वाले प्रभु महावीर द्वारा स्थापित इस परम पवित्र तीर्थ की
आज कैसी दशा है?
हमारा भविष्य क्या है? हम
भव-सागर में भटकने के मार्ग पर हैं या इस भव सागर से पार उतरने की दिशा में अपने
कदम बढा रहे हैं? जिस प्रकार से आज विज्ञान ने संसाधनों का
विकास किया है,
हम उनका इस्तेमाल किस दिशा में जाने के लिए कर रहे हैं? हमारी नई पीढी उन संसाधनों का उपयोग कर अधिक से अधिक विकार ग्रस्त हो रही है
या सन्मार्ग पर है? हमारे परिवारों में आज संस्कारों की क्या
स्थिति है?
क्या हम भक्ष्य-अभक्ष्य का विवेक कर पा रहे हैं? हम आज अधिकाधिक तनाव और अवसाद से ग्रस्त होते जा रहे हैं या शान्ति का अनुभव
कर पा रहे हैं?
बडे दुःख और आश्चर्य की बात यह है कि हम टीवी में जो कुछ देखते
हैं,
उसकी नकल करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन
जो हमारे महापुरुष हजारों वर्ष पूर्व बता गए हैं, उसका
आचरण करने से परहेज कर रहे हैं, जबकि आपकी उन्नति, आपके विकास,
आपके दुःख-दर्द मिटाने का असली रास्ता टीवी में नहीं, अपितु शास्त्रों में है। जरूरत इस बात की है कि उन शास्त्रों को आज के परिवेश
के अनुरूप समझा और समझाया जाए।
प्रभु महावीर के जन्म-कल्याणक का यह अवसर हमें इस प्रकार के
चिंतन के लिए प्रेरित करता है। अन्य समाज-समुदाय के लोग आज हमें किस नजर से देखते
हैं?
जिस प्रकार हमारे खान-पान, रहन-सहन, आचार-विचार में तेजी से बदलाव आ रहा है, अत्याधुनिकता
और तेज भागती जिन्दगी के नाम पर जिस प्रकार की केबल-संस्कृति हमारे दिलो-दिमाग पर
छा रही है;
क्या कभी आपकी कल्पना में यह तथ्य आया है कि जैनधर्म का ‘आगामी कल’
कैसा होगा?
मैं बहुत वेदना और विनम्रता के साथ आप लोगों से निवेदन कर
रहा हूं कि आज इन यक्ष प्रश्नों पर हमने चिंतन कर अपने संस्कारों को नहीं बचाया तो
सिर्फ अगले पांच वर्ष के भीतर इनके साथ जो जटिलताएं उत्पन्न हो जाएंगी, जुड जाएंगी,
वे बेहद तकलीफदेह साबित होंगी। हमें चाहिए कि अगले दो-तीन
वर्षों के दौरान जैन धर्म की मौलिकताओं को, उसके
वैज्ञानिक और तर्कसंगत स्वरूप को दुनिया के सामने लाएं, ताकि
उन संभावनाओं को परिपुष्ट किया जा सके, जिन्हें हम
विश्व-शान्ति,
विश्व-धर्म और विश्व-बंधुत्व जैसे नामों से जानते हैं। इसके
लिए जो भी अभिव्यक्ति के माध्यम हमारे सामने हों, उनका
हमें पूरे विवेक, पूरी होंशियारी और भरपूर समझदारी के साथ
उपयोग करने की कोशिश करनी चाहिए।
महावीर का पुनर्जन्म तो हो नहीं सकता, वे तो सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो गए। उनका पुनर्जन्म हमारे दिलों में हो, इसकी आज आवश्यकता है। वे इस काल (आरे) के सबसे बडे मनोवैज्ञानिक, समाज सुधारक और क्रान्तिकारी थे। उनके सिद्धान्तों को आत्मसात् करने की आज
जरूरत है। समाज में इस प्रकार की चेतना जगाने और इसे फिर से आचार प्रधान समाज
बनाने की आज जरूरत है, खासकर युवा पीढी को तैयार करने की आज
जरूरत है। इसके लिए कार्यक्रम और रणनीति आज तैयार की जानी चाहिए। आशा है वक्त की
जरूरत को,
वक्त की नजाकत को हम समझ पाएंगे और इसके अनुरूप हम अपने
आचरण को प्रखर बना पाएंगे, तब फिर हम गर्व से कह सकेंगे
कि हम ‘जैन’
हैं।-मदन
मोदी
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