याद रखना चाहिए कि तीर्थयात्रा मौज करने के लिए या अनुकूलता का उपयोग करने के
लिए नहीं है,
बल्कि आत्म-गुणों के प्रकटीकरण और उनकी निर्मलता की सिद्धि
के द्वारा मानसिक शान्ति प्राप्त करने के लिए है। इस प्रकार का ध्येय रखने वाले को
शारीरिक कठिनाइयां विषम नहीं लगती। किसी का कटु वचन प्रयोग उस पर थोडा भी असर नहीं
करता।
आज मानसिक शान्ति की जितनी चिन्ता नहीं है, उतनी इन्द्रियों के तोष की
चिन्ता है। किसी ने हमें ‘लुच्चा’ कह दिया,
इससे क्या हम लुच्चे-बदमाश बन गए? उस
वक्त उससे कहना चाहिए कि ‘अनंतकाल से मैं संसार में फंसा हुआ हूं, प्रमाद से लुच्चाई हो जाए, यह
मेरे लिए नई बात नहीं है। जब भी मुझ से लुच्चाई हो जाए और वह आपके ध्यान में आ जाए, तब
आप खुशी से मेरे ध्यान में लाएं, ताकि भविष्य में मैं लुच्चाई के पाप से बच
जाऊं।’ ऐसा कहने से मानसिक शान्ति चली जाएगी या बढेगी? लुच्चा कहने वाले को
भी आपकी मानसिक शान्ति आकृष्ट किए बिना नहीं रहेगी। सामने वाला पानी-पानी हो
जाएगा। हमारी इन्द्रियों को, हमारे दिल को और हमारी रीतिनीति को अगर हम
अनंतज्ञानियों के अनुसार बना दें, तो हममें मानसिक अशान्ति पैदा करने की
ताकत किसी में भी नहीं है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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