श्री जिनमन्दिर,
धर्मस्थान, साधर्मिक भक्ति और अनुकम्पा वगैरह कार्य
प्रत्येक गांव में हो सकें, इस प्रकार संघ निकलने चाहिए और इस प्रकार संघ के
निकलने से धर्म और शासन की प्रभावना होती है। आज इस उदारता में प्रतिदिन कमी होती
जा रही है। धर्म कार्य में उदारता वगैरह जितनी ज्यादा, उसका
परिणाम भी उतना ही ज्यादा! धर्म कार्यों में अपनी शक्ति का गोपन न करें। धर्म
कार्यों में ऐसा हिसाब तो नहीं ही गिनना चाहिए, जिससे धर्म कार्य का हेतु
सिद्ध न हो और आराधना की मात्रा में विराधना बढ जाए। आप भगवान से कहते हो कि ‘तेरी
सेवा में तन-मन-धन सब अर्पण’, लेकिन कहने मात्र से क्या होगा? जो
कहते हो उसका आचरण करने से कार्य सिद्ध होता है। ‘तेरे दास का भी दास
हूं’, ऐसा कहना और श्री वीतराग परमात्मा के दास सुखी हैं या दुःखी, उसकी
जांच भी न करना,
यह तो सिर्फ वाणी का आडम्बर है। ऐसा आडम्बर श्री वीतराग
परमात्मा के शासन में नहीं चलता। साधन होते हुए अवसर पर देने में संकोच करना, यह
उदारता की निशानी नहीं है। श्री वीतराग परमात्मा के शासन की जय-जयकार ऐसे लोग कभी
नहीं कर सकते। उदारता के साथ कीर्ति के भी उतने ही अनभिलाषी बनने की जरूरत है, क्योंकि
ऐसी अभिलाषा भी परम फल की प्राप्ति में विघ्नकर्ता ही है।
उदारता
के साथ सदाचार भी हो
गांव-गांव में धर्म की स्थापना, नामना और प्रभावना ठीक-ठीक हो, इसलिए
ऐसी संघ-यात्राएं निकालने का ज्ञानियों ने विधान किया है। शक्ति अनुसार अवसर को
सफल कर लेना,
देव-गुरु-धर्म और धर्मियों की शक्ति के मुताबिक भक्ति कर
लेना, संघ के आयोजक और संघ में चलने वाले यात्रियों दोनों का फर्ज है। संघ में
मौजमजा करने के लिए या सेठ बनने के लिए नहीं जाना है, बल्कि
धर्म साधना के लिए जाना है। उदारता के साथ सदाचार भी होना चाहिए। मेरी आँखें सिर्फ
देव, गुरु और साधर्मिक आदि के दर्शन के लिए है, न कि अप्रशस्त दर्शनादि के
लिए। मेरे कान जिनवाणी आदि के श्रवण के लिए हैं, न कि अप्रशस्त श्रवण
के लिए। मेरी जिव्हा देव,
गुरु और साधर्मिक आदि के गुणगान वगैरह के लिए है, न कि
निंदादि में अप्रशस्त रूप से प्रवर्तन के लिए। इस प्रकार इन्द्रिय निग्रह पूर्वक
धर्म सेवन करने का निश्चय प्रत्येक यात्री को कर लेना चाहिए। साधु भी संघ के साथ
आते हैं, उस संघ में आने वालों को इन्द्रियों का सदुपयोग करवाना और रत्नत्रयी, तत्वत्रयी
की आराधना कराना वगैरह हेतु धारण करने वाले होते हैं। अतः बात यह है कि श्री
वीतराग परमात्मा की दर्शायी हुई आराधना और प्रभावना के लिए ही संघ का आयोजन किया
जाता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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