श्रावक के मनोरथ में भी यह आता है कि श्रावक प्रतिपल यह चिन्तन करता है कि
मेरे जीवन में वह क्षण कब आएगा, जब मैं पाप कार्यों से निवृत्त होकर
रहूंगा? असंयम से निवृत्त होऊंगा। वह क्षण जब आएगा, तब मैं समझूंगा कि वह दिन मेरा
धन्य हो गया। इस मनोरथ का चिन्तन होता है क्या? होता है, लेकिन
शाब्दिक, अंतरंग से नहीं,
अपने आपको बदलने के दृढ संकल्प के साथ नहीं; इसीलिए
सवेरे मनोरथ का चिन्तन किया और जैसे ही उस स्थान से हटे कि फिर वही असंयमी
वृत्तियां हमारी शुरू हो जाती हैं। आप कहते हैं कि संयम हमें प्रिय है, लेकिन
आप तो असंयम में रच-पच कर कार्य करते हैं। असंयम में रहते हैं और इसीलिए सामायिक
भी करना है तो पहले टाईम देखते हैं, घडी पर आपकी दृष्टि जाती है
कि पांच मिनिट आप लेट हो गए हैं। तो सामायिक पांच मिनिट बाद आएगी, तो
सामायिक करें या नहीं करें?
और मान लिया जाए कि कदाचित् आप सामायिक कर भी लेते हैं तो
बार-बार आपकी दृष्टि घडी पर जाती है कि मेरी सामायिक आई कि नहीं? मेरी
सामायिक में कितनी देर है?
संसार का काम करते समय आप घडी देखते हो क्या? दुकान
पर बैठ हैं, ग्राहक आ रहे हैं तो आप घडी देखते हो क्या? वहां आपको घडी याद नहीं आती
है। आस्रव का काम करते हैं तो वहां आपको घडी की स्मृति नहीं होती है। वहां आप इतने
दत्तचित्त हो जाते हैं कि आपको भोजन की भी सुधबुध नहीं रहती। यह नहीं देखेंगे कि
भोजन का टाईम हो गया है। लेकिन जहां संवर का कार्य आता है, वहां
आपकी दृष्टि बार-बार घडी की ओर जाती है। अब बोलिए आपका रस किधर है? आपकी
रूचि किधर है?
संयम आपको प्रिय है या असंयम प्रिय है? -आचार्य
श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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