क्षत्रिय लोग युद्ध को अपना धर्म मानते हैं। जीत जाएंगे तो जय-लक्ष्मी से
नवाजे जाएंगे और युद्ध में मर जाएंगे तो शहीद का दर्जा मिलेगा, वीर
कहलाएंगे, देवांगना मिलेगी,
ऐसा मानते हैं। युद्ध में जाते हुए पति को या पुत्र को
पत्नी या माता कुंकुम तिलक से वधाती है और युद्ध में जाने से रोके तो वे
क्षत्रिय-कुलकलंक मानते हैं। इसी प्रकार जैन कुल में माता, पिता, पत्नी
आदि सन्मार्ग में जाने वाले को नहीं रोकते। स्वयं के पति या पुत्र सन्मार्ग में
जाए तो उसमें प्रसन्न होते हैं। वे समझते हैं कि ‘इससे इस लोक में वे
साधु के समान पूजे जाएंगे,
अनेक भव्यों का उद्धार करेंगे और बाद में शुभ गति को पाकर
परिणामतः मोक्ष में जाएंगे।’ सन्मार्ग में जाते हुए को रोके वह कुलकलंक
माना जाता है। शास्त्रों की आज्ञा है कि ‘सोलह वर्ष की उम्र के बाद
आज्ञा न मिले तो भी योग्य दीक्षार्थी दीक्षा ले सकता है और गीतार्थ गुरु उसे
दीक्षा दे सकता है।’
माता-पिता की आज्ञा मिले तो आठ वर्ष का बालक दीक्षा ले सकता
है, ऐसा शास्त्रों में स्पष्ट कहा गया है और भूतकाल में कई आत्माओं ने आठ वर्ष की
आयु में भागवती दीक्षा ग्रहण कर आत्म-कल्याण किया है। धर्मी धर्म करे और उसके पीछे
दूसरे लोग उत्पात मचाएं तो इसका पाप धर्मी के सिर पर नहीं है। दीक्षा आत्म-कल्याण
का पवित्र मार्ग है,
इसमें अडंगा उचित नहीं है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
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