मंगलवार, 21 अप्रैल 2015

परभाव में नहीं, स्वभाव में रहें



एक बार हम अपने मूल स्वरूप को समझ लें, अपनी मूल चेतना का ठीक से हमें बोध हो जाए, फिर तो हमारे जीवन की सारी गति उस मूल स्वरूप के प्रति समर्पित हो जाएगी। लेकिन, आज हमारी स्थिति यह बनी हुई है कि हमें अपने मूल स्वरूप का बोध ही नहीं होता, उससे पहले बाह्य परिस्थितियों से, संसार के पदार्थों के ज्ञान से हमारी चेतना इतनी आवृत्त हो जाती है, इतनी ढंक जाती है कि चेतना के विषय में हम कुछ सोच ही नहीं पाते हैं। अथवा यों कह सकते हैं कि हम अधिकांशतया स्वभाव में नहीं, परभाव में ज्यादा रमण करते हैं, विभाव में ज्यादा रहते हैं। जीवन के अधिकांश क्षणों को हम देखें तो, उन वैभाविक वृत्तियों में ही अधिक आबद्ध रहते हैं। जब आपकी चेतना स्वभाव में नहीं होती है, वैभाविक अवस्था में होती है तो, व्यक्ति को क्रोध आता है। और जब व्यक्ति को क्रोध आता है, तब उसकी चेतना जागृत नहीं होती है। उस समय वह स्वयं से जुडा हुआ नहीं होता है। आत्मा का यह विभाव है कि जब वह स्वयं से आबद्ध नहीं होती है तो निन्दा में लगी रहती है, संसार की किसी अन्य बाहरी वृत्ति से जुडी होती है। बाह्य पदार्थों से अथवा बाह्य-व्यक्तियों से जुडी होती है और ऐसी स्थिति में व्यक्ति अपने आप को नहीं देखता है। जो व्यक्ति अपने आप को देख लेता है, फिर उसे क्रोध नहीं आता है, उसे द्वेष नहीं होता है, फिर वह परनिन्दा में नहीं, स्वनिन्दा में लग जाता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें