व्यक्ति स्वयं को जैसा कहता है, बताता
है अथवा लोग उसके संबंध में उसके बाह्य क्रियाकलापों को देखकर जैसी धारणा बनाते हैं; व्यक्ति वस्तुतः स्वयं वैसा है या नहीं, इतना
विचार करनेवाली आत्मा मिथ्यादृष्टि होते हुए भी सन्मार्ग में जाती है, उन्मार्ग से बचती है। अमुक समय में गुरु की निश्रा चाहिए यह बात अलग है। ऐसी आत्माएं
अपने संबंध में दुनिया कहे वैसा अपने आपको मान लेने के लिए एकदम तैयार नहीं होती और
जो इस प्रकार अपने आपको मानने के लिए तैयार नहीं होती, वे ही अपने छुपे हुए दोषों को देख सकती हैं। लोगों ने जैसा माना है उसमें
कोई फेरफार नहीं है, लोगों ने सही ही समझा है, ऐसा मानकर फूलने वाला स्वयं मरता है और मारता है। ऐसे विचार की भावना स्थूल न हो
और सूक्ष्म हो तभी विचार करे तो समझ सकता है।
मुनि से भी वंदना को विघ्न मानने के लिए कहा गया है। मुनि लोगों को वंदना करते
हुए देखकर फूले नहीं, अहंकार नहीं करे कि उसे कितने
और कैसे लोग नमन कर रहे हैं, उसमें ऋजुता का भाव अखण्डरूप
से रहना ही चाहिए। मुनि भी उस वंदना को पूर्व के ज्ञानी महापुरुषों को समर्पित करे
और अपना आत्मनिरीक्षण करे कि वह उस योग्य कैसे बने? स्वयं का इस प्रकार आत्म-निरीक्षण मिथ्यादृष्टि भी उचित प्रमाण में कर सकता है
और इससे वह अनायास ही बिना किसी अतिरिक्त श्रम के भी सन्मार्ग पर जा सकता है। उन्मार्ग
में होते हुए भी सीधे मार्ग पर कैसे, यह विचार
करो! वह कहता है कि "शास्त्र गहन हैं, मति अल्प है इसलिए शिष्ट पुरुष कहें वही प्रमाण"। अपनी मति पर वह नाचता-इतराता नहीं, इसलिए वह मार्गानुसारी
कहलाता है। सतत आत्म-निरीक्षण कर अपने आपको कसौटी पर कसने वाला ही जीवन में सफल हो
सकता है।-सूरिरामचन्द्र
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