रविवार, 29 नवंबर 2015

रामचंद्रजी को क्रोध क्यों नहीं आया?



मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्रजी भाग्य की प्रबलताको मानते थे और उसी के अनुरूप उनका चिंतन होता था। यदि भाग्य की मान्यता उनके दिल में न होती तो श्री रामचन्द्रजी को क्रोध न आए, ऐसा नहीं होता। उनके संयोगों को देखिए। राजगद्दी मिलने के समय पिताजी दूसरों को राजगद्दी दे दें तो स्वाभाविक था कि उन्हें क्रोध आए, पर रामचन्द्रजी ने क्रोध नहीं किया, ऐसा शास्त्रों में लिखा है। आप सोचिए कि उन्हें क्रोध क्यों नहीं आया? कितना बडा राज्य और उसका राजा बनना, कितनी समृद्धि और सत्ता थी। सोचकर देखिए, यह सब आँखों के निमेष की तरह एक पल में बह गया, फिर भी उन्हें क्रोध नहीं आया। क्या आप से यह सहन होता? शक्ति आजमाने की इच्छा नहीं होगी?

विशेषता यह थी कि श्री रामचन्द्रजी यह सब पिता के वचन पालन के लिए सहते थे। वचन उनके पिताजी ने दिया था, रामचन्द्रजी ने नहीं, और वह वचन उन्होंने रामचन्द्रजी को पूछकर नहीं दिया था। ऐसे में सौतेली मां अपने पुत्र के लिए राज्य मांग लेती है, उनके पिताजी दे भी देते हैं और वह रामचन्द्रजी को स्वीकार्य भी होता है। यह सब क्या इतना सरल है? ऐसा क्यों हुआ? उन्हें ऐसे समय में भी न क्रोध आया, न दुःख हुआ, क्योंकि वे विवेकी थे। उन्हें कर्मसत्ता की प्रबलता का खयाल था। रामचन्द्रजी को राज्य नहीं मिलने में उनका तात्कालिक कोई अपराध नहीं था, पर ज्ञानी कहते हैं कि उनके पूर्व भव का कोई कर्मविपाक था। इसी प्रकार आप भी समझ लीजिए कि हमें जो अनुकूल या प्रतिकूल मिलता है, उसमें केवल बुद्धि काम नहीं करती। अच्छे संयोग अचानक परिवर्तित हो जाएं तो समझिए कि केवल इस भव का दोष नहीं है, अपितु पूर्व संचित पुण्य-पाप के उदय अनुसार भवितव्यता के मुताबिक जो होना होता है, वह हुए बिना नहीं रहता। ऐसा विश्वास दृढ कर लेने की जरूरत है।

रामचन्द्रजी को क्रोध नहीं आया, क्योंकि उनमें ऐसा विश्वास था। आज ऐसा कुछ साधारण-सा प्रसंग भी बन जाए तो क्या बाप को अदालत में गए बिना छुटकारा मिल सकता है? उसमें भी यह सिद्ध हो जाए कि यह पूर्वजों की सम्पत्ति है तो क्या होगा? बाप को जेल और बेटे सम्पत्ति पाकर खुश ! पिता-पुत्र का रिश्ता तो वही है, जो पहले था, लेकिन पहले और आज में काफी अंतर है। अच्छा या बुरा बनना अपने हाथ की बात है। दुनिया के चाहे जैसे संयोग हों पर आत्मा स्वभाव में रहे तो बहुत काम हो जाए। कितनी भी कीमती वस्तु मिले या चली जाए, मिले या न मिले, सुरक्षित रहे या खो जाए, पर यह विश्वास रखना चाहिए कि चीजों का मिलना, रहना या टिकना, यह भाग्याधीन है। पहले की अपेक्षा आज बहुत परिवर्तन आ गया है। फिर भी अच्छा बनना अपने हाथ की बात है। आर्य होकर भी अनार्य की तरह जीवन जीना, यह कोई कम अधमता नहीं है। इस दशा का कारण यह है कि आपके हृदय में धर्म को स्थान ही नहीं दिया गया है।-सूरिरामचन्द्र

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