सम्यक्त्व से पहले का गुण है जिज्ञासा। यह आए तो सारे गुण आएं। जिज्ञासा यानी
जानने की इच्छा। धर्म जानने की जिज्ञासा प्रकट हुई या नहीं, इसका क्या आधार? व्यक्ति जहां बैठा है वहां
तमाम संयोग सारभूत नहीं दिखाई देते, इनके
अतिरिक्त कुछ नया जानने की इच्छा जागृत हो, यही
इसका आधार है। ‘यह भी ठीक और वह भी ठीक’ यह भावना हो तो यह जिज्ञासा नहीं है। जिज्ञासा प्रकटे तो गुरु के पास जाने की
इच्छा अपने आप होती है। गुरु के पास जाए तो विनय और नम्रता उसके साथ चली आती है।
ये आती हैं तो पूछने की भावना होती है। इस प्रकार पूछे गए सवालों का उत्तर प्रेम
से सुना जाता है और जो प्रेम से सुना जाए वह हृदय में उतरता ही है। विधि और क्रम
यही है। आज तो न जिज्ञासा है, न इच्छा है, न विनय या नम्रता, न सवाल और न उत्तर सुनने का
प्रेम। प्रेम से सुनें तो हृदय में उतरे ही। हृदय कोई पत्थर नहीं, यह तो पोची जमीन है। उपजाऊ जमीन में थोडी सी भी बारिश हो तब भी किसान पेट भरने
जितना तो कमा ही लेता है। वह बारिश निष्फल नहीं जाती। क्रमशः एक-एक गुण बढते-बढते
आत्मा में असंख्यात गुणी निर्मलता बढती है। एक जिज्ञासा गुण से इस आत्मा को दुनिया
की दूसरी आत्माओं की अपेक्षा असंख्यात गुणा निर्जरा होती है।-सूरिरामचन्द्र
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