अशान्ति किसी को भी पसन्द नहीं है और शान्ति सबको
पसन्द है, लेकिन शान्ति और
अशान्ति के साधन के बारे में अनेक मतभेद हैं। एक जिसे अशान्ति का कारण मानता है, दूसरा उसे शान्ति का साधन मानता
है। एक को जिसके योग में शान्ति लगती है, दूसरे को उसी के योग में अशान्ति लगती है। प्रत्येक की शान्ति और अशान्ति की
व्याख्या भिन्न-भिन्न है। शान्ति और अशान्ति के स्वरूप में भी भिन्नता है। इनके
साधनों के बारे में भी मतभेद हैं। किसी ने किसी में शान्ति या अशान्ति मानी है तो
किसी ने उसमें अशान्ति या शान्ति मानी है। ऐसी परिस्थिति में अशान्ति निकाल दे और
शान्ति को रहने दे, ऐसे
धर्म के विषय में गहरा विचार करने से पहले ‘कौनसी दशा होगी तो शान्ति प्राप्त होगी’, यह निश्चित कर लेना चाहिए। ‘किस प्रकार की मनोवृत्ति हो तो
अशान्ति का प्रादुर्भाव न हो और शान्ति स्थिर रहे’, इस बात का भी विचार आपको करना चाहिए।
अनहद की शान्ति, सम्पूर्ण और शाश्वत शान्ति तो जब प्राप्त होगी तब
होगी, परन्तु आपकी आत्मा को
पहले शान्ति का अनुभव हो और धीरे-धीरे सम्पूर्ण शाश्वत शान्ति के मार्ग पर आपकी
आत्मा आगे बढती रहे, ऐसी
मनोवृत्ति कैसी होती है, उसका
विचार करना है। आपने कुछ इष्ट संयोगों में शान्ति और अनिष्ट संयोगों में अशान्ति, ऐसा मान लिया है, इसलिए आपकी शान्ति और अशान्ति का
मेल बैठता नहीं है। यह मेल यदि बैठ जाए तो आपको भी ऐसा ही लगेगा कि जब तक खास
प्रकार की मनोवृत्ति नहीं होगी, तब
तक अशान्ति से बचना प्रायः अशक्य होगा और शान्ति का अनुभव नहीं होगा। शान्ति के
अभाव में यह अमृत तुल्य जीवन भी विषरूप बन जाएगा।
आज की दुनिया जिस प्रकार की प्रवृत्ति कर रही है, जितनी दौडधूप कर रही है, जिसके लिए अपना जीवन खर्च कर रही
है और जिसमें अपना तथा अपने परिवार का कल्याण मान रही है, उस तरफ दृष्टिपात करना चाहिए और ज्ञानदृष्टि से सोचना
चाहिए। ऐसा किया तो आपको अवश्य महसूस होगा कि आज की दुनिया को सच्चे अर्थ में यह
मानव-जीवन कीमती नहीं लग रहा है, क्योंकि
कीमती लगता तो आज आपकी यह दशा दिखाई नहीं पडती। आजकल सभी लोग येन-केन-प्रकारेण
अपना स्वार्थ साधने में लगे हैं, उससे
दूसरे को कष्ट पहुंच रहा है, इसकी
रत्तीभर चिन्ता उन्हें नहीं है। यह वृत्ति कई बार इंसान को जानवर से भी बदतर बना
देती है। विवेकी मनुष्य के मन
में होता है कि मुझे जिस तरह अनुकूलता पसंद है और प्रतिकूलता पसंद नहीं है, वैसे सभी जीवों को अनुकूलता अच्छी
लगती है और प्रतिकूलता खराब लगती है। इसलिए मुझे अन्य के साथ ऐसा व्यवहार करना
चाहिए कि जिससे मैं मेरी प्रिय प्राप्ति के लिए किसी की प्रिय प्राप्ति में बाधक
बनकर दुश्मन न बन जाऊं। ऐसी वृत्ति से धर्म आए बिना नहीं रहेगा, क्योंकि किसी की पसंद में बाधक न
बनना हो तो ‘मुझे
कैसे जीना चाहिए’, यह
भाव पैदा हुए बिना नहीं रहेगा और इससे मनुष्य, मनुष्य बन जाएगा।-सूरिरामचन्द्र
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