‘सुख हो या दुःख हो, हर अवस्था में मुझे समाधि मिले।’ समाधि अर्थात् समान धी (बुद्धि)। सुख आए तो छकना नहीं और
दुःख आए तो थकना नहीं। मतलब कि सुख और दुःख दोनों ही परिस्थितियों में समभाव से
रहना। सुख में अलीन और दुःख में अदीन रहने की सिद्धि प्रभु से मांगी जा सकती है।
दूसरी अपेक्षा से अरिहंत और सिद्ध ये दोनों देव-तत्त्व हैं तो इनसे अरिहंतपना और
सिद्धपना मांगना; वहीं आचार्य, उपाध्याय एवं साधु गुरु-तत्त्व हैं तो इनसे साधुपना
मांगना। अर्थात् आचार्य, उपाध्याय और साधुता के गुण मुझ में प्रकट हों, ऐसा मांगना।
मतलब यह कि हम मन में ऐसा संकल्प करें, ऐसी भावना भाएं, ऐसा पुरुषार्थ करें कि हम में भी वे सभी गुण प्रकट हों जो
साधु, उपाध्याय, आचार्य, अरिहंत प्रभु या सिद्ध भगवान में होते हैं और हम भी
सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाएं!
मन्दिर में प्रवेश करते समय जिस प्रकार ‘निसीहि’ बोलकर सांसारिक पाप-व्यापार को छोडने का प्रणिधान (संकल्प)
किया जाता है; उसी प्रकार उपाश्रय अथवा अन्य किसी धार्मिक स्थान में प्रवेश
करते समय भी ‘निसीहि’ बोलने का विधान है। कारण कि मन्दिर की भाँति ही उपाश्रय या
अन्य किसी धार्मिक स्थल में किसी भी प्रकार के सांसारिक पाप-व्यापार का
मानसिक-वाचिक-कायिक प्रवर्तन नहीं किया जाता।
‘निसीहि’ का अभिप्राय है छोडना, त्यागना। मैं सांसारिक पाप-व्यापार को छोडता हूं। यह
मन्दिर में प्रवेश के समय भी छोडना है और उपाश्रय या किसी धार्मिक स्थल में प्रवेश
के समय भी छोडना है। वहां हमें विशुद्ध रूप से आत्म-कल्याण का पुरुषार्थ ही करना
है। यह आत्म-कल्याण की दिशा में पहला कदम है. -सूरिरामचन्द्र
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