तत्वज्ञानी महापुरुषों ने संसार के सभी पदार्थों का
विचार कर आत्मा के स्वभाव को प्रकट करने के लिए प्रयत्नशील बनने का उपदेश दिया है, क्योंकि आत्मा के शुद्ध स्वरूप के
प्रकटीकरण के बाद शाश्वत काल वह शुद्ध ही रहता है, उसमें परिवर्तन नहीं आता है। दुनियावी पदार्थ नाशवंत
हैं, कितनी ही मेहनत व कितने
ही पाप करके दुनियावी पदार्थ प्राप्त किए हों, फिर भी वे पदार्थ टिकने वाले नहीं हैं। कई लोग तो
उन्हें प्राप्त करने के बाद इस जीवन में ही खो देते हैं। प्राप्त सुख चला जाए, यह किसी को पसन्द नहीं है, फिर भी पदार्थों का वियोग निश्चित
है, तो फिर उन पदार्थों में
संयोग का सुख पाने के लिए प्रयत्न करना कौनसी बुद्धिमत्ता है?
प्राप्त सुख का साधन स्थाई हो तो प्राप्त सुख स्थाई
रह सकता है। वह सुख आत्मा सिवाय किसी में नहीं है। अतः अपनी आत्मा को ऐसी शुद्ध
बना दें कि अनंतकाल के बाद भी शुद्धस्वरूप में परिवर्तन होने न पाए। जब तक आत्मा
पुण्य-पाप से लिप्त है, तब
तक आत्मा शाश्वत सुख प्राप्त नहीं कर सकती है। पुण्य-पाप से रहित बनने पर ही आत्मा
शाश्वत सुख में स्थिर हो सकती है। आत्मा को पाप व पुण्य से रहित बनाने के लिए
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान
और सम्यग्चारित्र की आराधना बताई है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र रूपी रत्नत्रयी ही
मोक्षमार्ग है। इस रत्नत्रयी की आराधना करने से आत्मा का रत्नत्रयीमय स्वरूप प्रकट
होता है। आत्मा पुण्य-पाप से सर्वथा रहित बनती है।
रत्नत्रयी की सर्वश्रेष्ठ आराधना करने के लिए अन्य
सभी साधनाओं से मुक्त हो जाना चाहिए। उसके लिए ज्ञानियों ने संसार-त्याग पूर्वक
संयम पालन का उपदेश दिया है। संसार में रहकर आत्मा रत्नत्रयी की आराधना नहीं कर
सकती है। संसारी लोगों का जीवन पाप से सर्वथा मुक्त व सिर्फ रत्नत्रयी की आराधनामय
संभव नहीं है। अतः इसके लिए साधु जीवन ही सर्वश्रेष्ठ जीवन है। इसमें शंका को कोई
स्थान नहीं है। आत्म-कल्याण के लिए इच्छुक विवेकी आत्मा साधु जीवन को न चाहे या
अनुमोदन न करे, यह
संभव नहीं है, क्योंकि
आत्मा के स्वभाव को प्रकट करने का सर्वश्रेष्ठ उपाय साधु जीवन ही है। इसलिए शक्य
हो तो साधु जीवन ही स्वीकार करना चाहिए, परन्तु इतनी उच्च भूमिका तक पहुंचना जिनके लिए अभी संभव न हो, उन्हें संसार में रहते हुए भी
रत्नत्रयी की शक्य आराधना करनी चाहिए। साधु के लिए हिंसा-विरमण आदि महाव्रत हैं तो
गृहस्थों के लिए स्थूल प्राणातिपात विरमण आदि अणुव्रत हैं। महाव्रतों के लिए जो
असमर्थ हों वे अणुव्रतधारी बनें। अणुव्रतों के पालन में वह इस प्रकार प्रयत्नशील
बनें कि जिसके प्रभाव से निकट भविष्य में महाव्रतों की प्राप्ति सुगम हो जाए।-सूरिरामचन्द्र
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें