पडौसन आकर बालक को कहे कि ‘तेरी मां तो तुझे
मारती है, इसलिए चल मेरे यहां मैं तुझे
खेलाऊंगी’, तो भी वह बालक पडौसन के यहां
नहीं जाएगा। अपने घर में रोटी और राबडी खाएगा, किन्तु
हलवा-पुडी खाने के लिए वहां नहीं जाएगा। कोई उसे कहे कि ‘तेरी मां ने कल तो तुझे मारा था न?’ तो
वह कहेगा कि ‘भले ही मारा, वह तो मेरी मां थी न?’ वहां श्रद्धा है कि ‘मां तो मां है।’ बालक को जिस प्रकार मां पर
श्रद्धा है, उस प्रकार आपको ‘मेरे देव, मेरे गुरु, मेरा धर्म’, ऐसा कुछ है? माता तो प्रत्यक्ष दूध पिलाती है, किन्तु
धर्म प्रत्यक्ष कुछ देता नहीं है न? माता
के स्तन में दूध कौन देता है? धर्म नहीं दिखाई देता
आपको? कचरे में से दूध? यहां धर्म का प्रभाव नहीं है? मल-मूत्र की कोटडी रूप
शरीर में दूध कहां से आया? यह धर्म का प्रभाव नहीं तो और
क्या है? ये तो नमकहराम ऐसे पक्के हैं
कि जिन के योग से जन्मे, पोषण हुआ, बडे हुए उन्हें ही खत्म कर देने को तैयार हो गए हैं। आज माँ-बाप की उपेक्षा
इसका जीवंत प्रमाण है.
जब काम-धंधा नहीं, तब भी धर्म नहीं होता तो फिर
बाद में होगा? बैठने का ठिकाना नहीं तब धर्म
नहीं होता, तो गादी मिलने के बाद धर्म
होगा? जिनके योग से यह सबकुछ है वही
पीछे है तो मानलो कि सबकुछ ही पीछे है। धर्मी तो कहता है कि सब बाद में, किन्तु जिनपूजा, सामायिक, गुरुवंदनादि धर्म ही पहले। सर्वस्व भले ही जाए, किन्तु धर्म नहीं छोडा जा सकता।
आप मनुष्य जन्म में आए वह पाप के योग से या धर्म के योग से? धर्म के ही योग से। आर्यदेश, आर्यजाति, आर्यकुल में
जन्म मिला वह धर्म के योग से। माता के उदर से सही-सलामत जन्मे वह धर्म के ही योग
से। माता ने गर्भ में ही गला क्यों नहीं दिया? गर्भपात
क्यों नहीं कराया? जन्मते ही गला क्यों नहीं
दबाया? दूध में जहर क्यों नहीं
पिलाया? यह सब धर्म के ही योग से और
यही धर्म इन सबके बाद? नमकहरामी में कोई कमी नहीं
रखी है? धर्म आगे, उपकारी मां-बाप भी पीछे, तो दूसरी चीज की तो
बात ही क्या है? मां-बाप तो उपकारी हैं, किन्तु धर्म के समक्ष इनको भी शास्त्र ने पीछे रखा है तो बाकी सब बाद में हो
इसमें कौनसी नई बात है? यदि धर्म को बाद में रखा तो सबकुछ बाद
में ही समझना। चाहे जिस धर्म वाला हो, किन्तु
जो धर्म में मानता हो, वह यही कहेगा कि पहले धर्म और
बाद में ही सब। यदि धर्म बाद में तो सब बाद में; कभी मिले तो भी वह भोग नहीं सकता। धर्म की अवगणना करने वालों का तो पूर्व
पुण्य से प्राप्त किया हुआ राज्य भी नष्ट हो गया। अहंकार में डूबे हुए धर्म की
अवगणना करने से भी नहीं घबराते। ऐसे अधर्मी और स्वार्थियों को धर्म की अवगणना करने
में कितनी देर लगती है? ये लडखडाकर कहां जाएंगे, कहां गिरेंगे, इसका इन्हें भी पता नहीं
चलेगा।-सूरिरामचन्द्र
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