दुःख की बात है
कि आज जहां देखें वहां धर्मस्थानों में भी बडप्पन की झूठी एवं तुच्छ वासना पनप रही
है, जिसे निकालना
आवश्यक है। आज यह मनोदशा है कि देव अर्थात् खिलौना, गुरु अर्थात्
हमारी इच्छानुसार चलने वाला और धर्म अर्थात् अवकाश में आराम का स्थान। आज का फैशन
परस्त शौकीन युवक जब मन्दिर में जाता है तो धर्मी त्रस्त होते हैं। वह युवक संसार
के परम तारक परमात्मा के निकट सीना खोलकर खडा रहता है। इसमें वह अपनी वीरता समझता
है। बताइए, उसके समान पामर
भला कौन होगा?
जिसके हृदय में
गुणवान के प्रति सम्मान नहीं है, उसे सुख कैसे प्राप्त होगा? क्योंकि
आत्म-गुणों के प्रकाशन-प्रकटीकरण में ही वास्तविक सुख निहित है। गुणवान आत्माओं के
प्रति सम्मान ही गुण-प्रकाशन का एक विशेष अवसर है। सच्चे गुणवान की आज्ञानुसार
अपना जीवन-निर्माण करने के लिए जो तैयार नहीं होते, वे यदि सिर
पीट-पीट कर मर जाएंगे तो भी उन्हें सच्चा सुख कभी नहीं मिलेगा।-सूरिरामचन्द्र
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