जिस लक्ष्य से क्रिया करनी है, उस
लक्ष्य के मद्देनजर वह क्रिया नहीं करे तो शास्त्र कहते हैं कि अजीर्ण हो जाता है।
ज्ञान का अजीर्ण अहंकार है और तप का अजीर्ण क्रोध है। जो उसके हेतु (लक्ष्य) को
नहीं सहेजते, उन्हें यह होता है। अहिंसा, संयम और तप : ‘धम्मो मंगल’ की गाथा में ज्ञानी ने यह
क्रम कहा। वहां पहले अहिंसा क्यों? पहले
संयम क्यों नहीं? तो कहा कि संयम भी अहिंसा के
लिए ही है और तप संयम के लिए है। सबसे पहले अहिंसा; इसे सहेजने, पल्लवित करने और इसमें वृद्धि
करने के लिए संयम है। जो संयम पालते हुए अहिंसा जाए, वह संयम नहीं है। ऐसा संयम नहीं चाहिए। शास्त्र ने बगुले के संयम को असंयम कहा
है। बगुला स्थिर होता है, इन्द्रियों का गोपन करके रखता
है, उसे लाभ होता है? नहीं।
कारण कि वह यह सब हिंसा के लिए करता है। उसकी यह क्रिया तो अहिंसा की घातक है।
अहिंसा यह तो धर्म का पाया है, आधार है, धर्म की नींव है और संयम आत्मा का स्वरूप है।
अहिंसा के लिए ही बाकी का सबकुछ है। जो स्वयं की हिंसा नहीं चाहते उनसे दूसरों
की हिंसा नहीं चाही जा सकती। अहिंसा यह आत्मा का मूल गुण है। अहिंसा यह पहला
महाव्रत है। बाकी के सभी व्रत अहिंसा की सुरक्षा और संरक्षण रूप बाड हैं। पहले
व्रत की सुरक्षा के लिए बाकी के व्रत हैं। पहला व्रत नहीं हो तो ये दूसरे व्रत
होते हुए भी व्रतधारी नहीं कहलाता। श्रावक के पहले पांच अणुव्रतों में मुख्य तो
यही है, बाकी के चार इसे पल्लवित करने
के लिए ही हैं। तीन गुण व्रत, ये पांच का पोषण करने
के लिए और चार शिक्षाव्रत इनमें सुधार करने के लिए हैं। जिसे स्वयं का बिगाड अच्छा
नहीं लगता, वह दूसरे का बिगाड नहीं करता।
अहिंसा के लिए संयम है; अहिंसा भूले तो संयम व्यर्थ
है। संयम की शुद्धि के लिए तप है। संयम पर चिल्लाए, क्रोध करे ऐसा तप वह तप नहीं है।-सूरिरामचन्द्र
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