शनिवार, 2 मई 2015

10 मिनिट के लिए ही सही वक्त निकालकर इसे तसल्ली से पढकर आज रात में इस पर सोचिएगा जरूर-




नेपाल में जो जलजला, भूकम्प आया, उसमें 10 हजार से अधिक लोगों की मृत्यु हुई है, जिस समय यह आपदा आई, उस समय सभी लोग कई प्रकार के कामों में लगे हुए होंगे, कोई कुछ खा रहा होगा तो कोई कुछ कमाने में लगा होगा तो कोई भोग भोगन में भी लगा होगा, कोई किसी को मूर्ख बना रहा होगा, तो कोई किसी को ठग रहा होगा, कोई हंस रहा होगा तो कोई रो रहा होगा, कोई धर्म में भी लीन रहा होगा, दो लाख से ज्यादा महिलाएं गर्भवती थीं, उनका बच्चा तो दुनिया में आया भी नहीं था, किसी ने उन्हीं क्षणों में बच्चे को जन्म दिया होगा और कोई देनेवाली होगी; अब जरा इस पर विचार करें कि क्या इनमें से किसी को पता था कि अगले ही क्षणों में उनकी दुनिया धूलधुसरित होनेवाली है? विचार करें कि वे 10 हजार लोग क्या यह जानते थे कि वे मौत के मुँह में जानेवाले हैं? इस पर सोचिए जरूर......और सोचिए कि आप अपने जीवन की गारंटी तो नहीं लिखवाकर लाए हैं न? कभी भी कुछ भी हो सकता है, क्षणमात्र का भी भरोसा नहीं है, तो फिर परमतारक गुरुदेव की इस हित-शिक्षा पर थोडा गंभीरता से विचार करें-

क्षण मात्र का भी प्रमाद न करें

"जीवन के भोग, मेघ रूपी वितान में चमकती हुई बिजली के समान चंचल हैं और आयु, अग्नि में तपाये हुए लोहे पर पडी जल-बिन्दु के समान क्षणिक है। जिस प्रकार सर्प के मुँह में पडा हुआ भी मेंढक मच्छरों को ताकता रहता है; उसी प्रकार लोग काल रूपी सर्प से ग्रस्त हुए भी अनित्य भोगों को चाहते रहते हैं। हमने विषयों को तो भोगा नहीं, उलटे विषयों ने ही हमें भोग लिया, हम तप न तपे, परन्तु ताप ने हमें तपा दिया और समय नहीं बीता, परन्तु आयु अलबत्ता व्यतीत हो गई। परन्तु इतने पर भी तृष्णा बूढी नहीं हुई, बल्कि हम ही वृद्ध हो गए। इतना सब हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं और संसार की असारता को भी जान रहे हैं, फिर भी हमारे कदम धर्माचरण की ओर न बढें तो यह दुर्भाग्य ही है। पिता, माता, पुत्र, भाई, स्त्री और बंधु-बांधवों का संयोग प्याऊ पर एकत्रित हुए जीवों अथवा नदी प्रवाह से इकट्ठी हुई लकड़ियों के समान चंचल है। यह निःसंदेह दिखाई पडता है कि लक्ष्मी छाया के समान चंचल और यौवन जल-तरंग के समान अनित्य है, स्त्री-सुख स्वप्न के समान मिथ्या और आयु अत्यंत अल्प है, तिस पर भी प्राणियों का इनमें कितना प्रमाद-भाव, कितना अभिमान है? जीवन की इस सच्चाई को, इस वास्तविकता को अनदेखा न करें और इसी समय से अपने आत्म-कल्याण के उपायों में लग जाएं।"- सूरिरामचन्द्र

संसार की क्षणभंगुरता का विचार करें

"यह संसार क्षणभंगुर है, नाशवान है। मनोहर दिखाई देने वाला प्रत्येक पदार्थ प्रति क्षण विनाश की प्रक्रिया से गुजर रहा है। जो कल था, वह आज नहीं है और जो आज है, कल नहीं होगा। संसार प्रतिक्षण नाशवान और परिवर्तनशील है। फिर हम क्यों बाह्य पदार्थों, जड तत्त्वों में भटक रहे हैं? क्यों हम नश्वरता के पीछे बेतहाशा दौडे जा रहे हैं, पगला रहे हैं? हम आत्म-स्वरूप को समझकर शाश्वत सुख की ओर क्यों न बढें? जहां जीना थोडा, जरूरतों का पार नहीं, फिर भी सुख का नामोनिशान नहीं; ऐसा है संसार और जहां जीना सदा, जरूरतों का नाम नहीं, फिर भी सुख का शुमार नहीं; वह है मोक्ष! फिर भी हमारी सोच और गति संसार से हटकर मोक्ष की ओर नहीं होती, यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है? हम अनन्त काल से संसार की क्षणभंगुरता को समझे बिना परभाव में रमण करते चले आ रहे हैं, यही हमारे जन्म-मरण और संसार परिभ्रमण का कारण है, यही दुःख-शोक-विषाद का कारण है। 24 घण्टे हम परभाव में व्यस्त रहते हैं, एक क्षण के लिए भी यह विचार नहीं करते कि हम आत्मा के लिए क्या कर रहे हैं? जो भी आत्मा से परहै, वह नाशवान है और संसार के नाशवान पदार्थ ही सब झगडों की जड़ हैं; जब तक यह चिन्तन नहीं बनेगा, संसार से आसक्ति खत्म नहीं होगी, हम स्व-बोध को, आत्म-बोध को प्राप्त नहीं कर सकेंगे और उसके बिना आत्मिक आनंद, परमसुख की उपलब्धि असम्भव है।"- सूरिरामचन्द्र

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