प्रगतिशीलता
के नाम पर, सुधारवाद के नाम पर तथाकथित
बुद्धिजीवियों ने जिनकी धर्म के संबंध में कोई समझ नहीं, जिनके स्वयं के जीवन और आचरण खोखले
हैं, ऐसे लोगों ने 2008 के आसपास किसी बालदीक्षा को
लेकर मुम्बई समाज में बवण्डर मचाया और कुछ सिरफिरों ने बिना धर्म को समझे बालदीक्षा
के खिलाफ कोर्ट में एक मुकदमा दर्ज करा दिया। कोर्ट में बालदीक्षिता साध्वी की गवाही
संभव नहीं हो पा रही थी तो कोर्ट ने एक कमीशन नियुक्त किया और यह कमीशन स्वयं जाकर
उन साध्वीजी से मिला। उनके दर्शन, वार्तालाप, सवाल-जवाब से वह कमीशन संतुष्ट हो गया और उसने अपनी रिपोर्ट
न्यायालय को सौंप दी। मामला ठंडे बस्ते में चला गया।
इस दौरान
एक नटवरलाल टाइप व्यक्ति कुशल मेहता समाज के अग्रणीय व्यक्तियों और आचार्यश्री से मिला।
उसने अपने संबंध केन्द्र सरकार के मंत्रियों
व बडे अधिकारियों से बताए। उसने कहा कि वह तो भारत सरकार से ही आदेश निकलवा देगा कि
बालदीक्षा दी जा सकती है। और उसने ऐसा ही किया। एक गजट तैयार कर लाया और लोगों से वाहवाही
लूट ली। समुदाय समझा कि वाकई यह तो लेकर आ गया है और महाराष्ट्र, गुजरात व राजस्थान
के कई अखबारों ने भी इस संबंध में समाचार प्रकाशित कर दिए। इससे विशाल स्तर पर
वातावरण का निर्माण हुआ और इसी उत्साह में सन्मार्ग प्रकाशन ने भी उस गजट की नक़ल
छापते हुए विशेषांक निकाल दिया.
यह विरोधियों
की स्वयं की साजिश थी या केवल उस व्यक्ति की ही समाज को ठगने की करतूत थी, यह तो केवलीगम्य है, लेकिन इसका पता जैसे ही कुछ लोगों
को लगा कि यह गजट फर्जी है तो उन्होंने इसकी पुलिस में शिकायत दर्ज करा दी। पुलिस ने
जांच शुरू की, इस जांच में तीन साल लगे और
कुशल मेहता के ठिकानों पर दबिश देकर फर्जी सरकारी दस्तावेज तैयार करने के सामान बरामद
कर लिए और उसी को अपराधी मानकर कोर्ट में चालान पेश कर दिया, जिसमें कुशल मेहता को गिरफ्तार कर
लिया गया।
अब विरोधियों
ने दबाव बनाया कि सन्मार्ग के सम्पादक को भी गिरफ्तार करो, जबकि उससे पहले तो लोकसत्ता आदि
कई मराठी, गुजराती, अंग्रेजी के अखबारों में कुशल मेहता
गजट प्रकाशन के समाचार स्वयं छपवा चुका था। तो सवाल उठता है कि केवल सन्मार्ग के सम्पादक
को ही क्यों? सभी अखबारवालों को क्यों नहीं? लेकिन इतने बडे मीडिया पर अंगुली
उठा सके, उतनी औकात विरोधियों की नहीं
है, इसलिए उन्होंने तो अपने टार्गेट
पर ही फोकस किया; परन्तु
इस ओर कोर्ट का ध्यान आकृष्ट किया जाना चाहिए था, जो नहीं किया गया। जबकि फर्जी गजट
होने का मामला स्पष्ट होने पर सन्मार्ग ने खण्डन भी प्रकाशित कर दिया और सम्पादक ने
पुलिस में भी अपना लिखित खेद प्रकट कर दिया था।
जहां तक
आचार्यश्री या अन्य किसी का सवाल है, किसी के प्रवचन या लेख आदि का सवाल है, उन्होंने गजट के फर्जी पाए जाने
के बाद उस गजट या गजट लानेवाले व्यक्ति का समर्थन नहीं किया है। जब तक मीडिया और पूरा
समाज इस बात से अनभिज्ञ था, तब तक सभी ने इस बात की सराहना की, क्योंकि यदि वह सही है तो जैनशासन
के लिए एक बहुत बडी उपलब्धि है; इसका मतलब यह नहीं हो जाता कि ये सभी लोग उस फर्जीवाडे में शामिल
हो गए। आचार्यश्री या सन्मार्ग कार्यालय अथवा समाज के किसी ट्रस्टी के पास से या उनके
ठिकानों से ऐसे कोई दस्तावेज या सील आदि बरामद नहीं हुए। यह सब बरामदगी एक ही व्यक्ति
कुशल मेहता के ठिकाने से हुई है और जांच में पाया गया है कि वह आदतन जालसाज है। ऐसे
में किसी धर्माचार्य या किसी धार्मिक संस्था या उसके ट्रस्टियों को इस मामले में घसीटना
निहायत ही दुर्भाग्यपूर्ण और दुःखद है, यह कतिपय लोगों के ईर्ष्या व द्वेष का परिणाम है, जो आज गुजरात उच्च न्यायालय के फैसले
के रूप में हमारे सामने है।
8-10 लोगों के एक ही समूह द्वारा
एक ही बात को लेकर दस अलग-अलग स्थानों पर मुकदमे करना; यह ईर्ष्या और द्वेष नहीं है तो
और क्या है?
इसी ईर्ष्या
और द्वेष ने आज पूरे जैन समाज को संकट में खडा कर दिया है, जैनधर्म, दीक्षाधर्म की कितनी हीलना हो रही
है?
कोई भी जैनाचार्य जो पांच महाव्रतों अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और
अपरिग्रह का तीन करण, तीन योग से पालन करता हो और फखत अपनी
आत्मा में ही रमण करता हो, जीव मात्र के कल्याण की बात करता
हो; क्या वह स्वयं कोई फर्जी सरकारी दस्तावेज बना सकता है?
बनाने की प्रेरणा दे सकता है? या उसे मालूम हो
जाए कि अमुक चीज फर्जी है तो उसकी अनुमोदना कर सकता है? ये
यक्ष प्रश्न हैं।
ऐसा कोई भी जैनाचार्य नहीं कर सकता, नहीं करवा सकता और न ही करनेवाले की अनुमोदना कर सकता है।
इसके पीछे भयंकर ईर्ष्या और षडयंत्र है, जिसे समाज को, न्यायपालिका को और सरकार को समझना चाहिए। कोई इस प्रकार
लाखों लोगों की आस्था और विश्वास के साथ खिलवाड नहीं कर सकता।
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