बुधवार, 6 मई 2015

धर्मवाद और कुवाद



एक-दूसरे को एक-दूसरे के साथ मंतव्य सम्बंधी विचार भी धर्मवाद की रीति से करना चाहिए। यदि ऐसा होता है तो ही प्रायः जिसकी भूल होती है, उसे अपनी भूल का शीघ्र भान हो सकता है। अन्यथा चाहे जैसे अच्छे व्यक्ति को भी जब अपनी मान्यता का ममत्वपूर्ण आग्रह हो जाता है तो उसके सुधरने की गुंजाइश कम ही रहती है। वाद में उतरे और मन में ऐसा विचार रखे कि जीतूंगा तो विजय का आनंद उठाऊंगा, अन्यथा गाली देना तो आता ही है’, तो ऐसे वाद का परिणाम कैसा होगा? जैसे आजकल कई सटोरिये ऐसे होते हैं कि "आ जाए तो लेना ही है, नहीं तो मेरे पास क्या है जो ले जाएगा? घर, गहने, बर्तन आदि पहले से ही औरत और बच्चों के नाम कर दिए हैं।" यह दानव रीति है। दांव सीधा पड जाए तो मालिक बन बैठे और जो दांव उलटा पड जाए तो सामने वाले को रुलावे। नीति को चबा कर कमाने वाले होशियार कहे जाएं या लबाड? जिस वाद में वाद करने वाले की दृष्टि अपनी जीत की तरफ होती है; वह जीतने के लिए क्या उथल-पुथल नहीं करता और हारता है तो जीतने वाले की मुसीबत। तत्त्व-बोध के लिए किया जानेवाला वाद धर्मवाद है; इसके सिवाय के वाद तो कुवादों में गिने जाते हैं। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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