बुधवार, 20 मई 2015

अपने जीवन-व्यवहार पर चिंतन तो करें



हम अच्छे कुल में पैदा हुए हैं और सम्यग्दृष्टि कहलाते हैं, लेकिन हमारा जीवन कैसा है? हमारा आचरण कैसा है? हमारा व्यवहार कैसा है? कभी हमने अपने अंतरंग में झांक कर देखा है? आज हमारे कुल और कुल-मर्यादाओं का किस प्रकार अधःपतन हो रहा है? यदि हम अंतरंग में झांकेंगे तो हमें दिखाई देगा कि हम कुल के गौरव और मर्यादाओं को छोडकर अधिकांशतः दुष्प्रवृत्तियों में बहे जा रहे हैं। हमारी आत्मा मलिन बनी हुई है। कषायों में हम लिप्त हैं। कोई आदमी रुग्ण है, लेकिन जब तक उसे स्वयं बोध न हो कि मैं रुग्ण हूं, वह बीमारी से मुक्ति पाने का प्रयास कैसे कर सकेगा? यही हालत आज हमारी है। हमारे जीवन की स्थिति विपरीत बनी हुई है। आत्मा में रोग हो रहा है। इस रोग से मुक्त होने की तत्परता, उल्लास हम में दिखाई नहीं देता। रोग-मुक्ति के भाव ही पैदा नहीं हो रहे हैं। यदि हो भी रहे हों तो भी हमारे उपाय विपरीत, उलटे ही हो रहे हैं और बीमारी ठीक होने की अपेक्षा बढ रही है। यह गंभीर चिन्तन और सावधान होने का विषय है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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