मंगलवार, 26 मई 2015

लू से 2 हजार मरे; सरकार जश्न में मग्न



इस बार देश में प्रचण्ड गर्मी और लू के थपेडों से पिछले एक सप्ताह में ही दो हजार से ज्यादा लोग मर गए हैं, जबकि हजारों लोग, जिनमें बडी संख्या में बच्चे और महिलाएं भी हैं, इस तपिश के कारण विभिन्न बीमारियों से ग्रस्त होकर मौत के मुहाने पर पडे हैं। अकेले आन्ध्र व तेलंगाना में ही 1100 से ज्यादा लोगों के मरने की खबर है। ये खबरें बहुत ही सतही हैं। माजरा इससे कई गुना अधिक गंभीर है। टीवी पर मरने वालों या उनके परिवार वालों के दृश्य आप देखें तो वे हृदयविदारक दृश्य बहुत कुछ कहते हैं। लेकिन; विडम्बना यह है कि हमारी सरकार अपना एक साल पूरा होने के जश्न में इतनी मगन है कि मरनेवालों की लाशें और उनके परिवार वालों के हालात उसे दिखाई नहीं देते। करोडों रुपया जश्न में पूरा होगा, किन्तु उन परिवारों के पेट में अन्न का दाना नहीं जा सकेगा। विपक्ष भी सरकार के जश्न और दावों को झुठलाने के लिए अलग से जश्न करने में लगा है। आम आदमी की परवाह किसको है?

इस देश में जब ज्यादा गर्मी पडती है तब भी लोग मरते हैं और ज्यादा सर्दी पडती है तब भी लोग मरते हैं। गर्मी व सर्दी के समाचारों के साथ अकाल मरनेवालों का समाचार भी अवश्य आता है। कभी किसी नेता या बडे अफसर के गर्मी अथवा सर्दी से मरने के समाचार सुने हैं? वास्तव में गर्मी या सर्दी से कोई नहीं मरता, परन्तु जब तन ढकने को कपडा न हो, पेट भरने के लिए मुट्ठी भर दाने न हों और लू से सिर छिपाने के लिए कोई छत न हो, तो कोई भी बहाना जिंदगी को मौत में बदलने के लिए काफी है।

भारत के कुछ स्थानों पर एक दृश्य देखा जा सकता है। होटलों में जूठी प्लेटें साफ करके उनकी बची जूठन जब-जब बाहर फेंकी जाती है, तो इंसानों के बच्चे कुत्तों की तरह झपटकर उन जूठे दानों से अपना खाली पेट भरते हैं। स्वर्ग में बैठी आजादी के शहीदों की आत्माएं जब देश की 70 साल की आजादी के बाद भी यह स्थिति देखती होगी तो क्या सोचती होगी, यह सोचकर रगों का खून जमने लगता है। तथाकथित सभ्य समाज के वैवाहिक भोजों में जितना अन्न पेट में जाता है, उतना ही जूठन में भी जाता है; यह संवेदनहीनता, विवेकशून्यता की पराकाष्ठा है।

सोचिए जरा, हम कहां जा रहे हैं?

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें