सचमुच यदि धर्म को पाना हो और धर्म करना हो तो सबसे पहले संसार के सुख के
प्रति वक्रदृष्टि करनी होगी। संसार के सुख से जब तक दृष्टि हटती नहीं, तब
तक धर्म, धर्म के रूप में रुचिकर नहीं लगता और जब तक धर्म, धर्मरूप
में रुचिकर नहीं लगता,
तब तक धर्म, धर्म के रूप में करने का दिल
नहीं होता। आज धर्मक्रिया करने वालों में अधिकांश धर्म के विषय में संतोषी हैं या
धन के विषय में असंतोषी हैं। थोडा और वह भी पंगु धर्म करते हैं और ऐसा मानते हैं
कि उन्होंने बहुत धर्म कर लिया! किन्तु पैसा जैसे-जैसे बढता जाता है, वैसे-वैसे
असंतोष बढता जाता है। लखपति व्यक्ति धर्म के विषय में संतोष कर लेता है, लेकिन
धन के विषय में संतोष नहीं करता। धन के लोभी को धन के विषय में जैसा अनुभव होता है, वैसा
अनुभव धर्मरुचि वाले को धर्म के विषय में होता है। वह चाहे जितना धर्म करे तो भी
उसे कम ही लगता है। उसे यही विचार आता है कि ‘अभी तो मैं कुछ भी नहीं कर
रहा हूं। धर्म तो वास्तव में साधु महाराज ही कर पाते हैं।’ इसलिए
उसे साधु बनने का मन हुआ करता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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