इतिहास में उल्लेख आता है कि सौंदर्य की अप्रतीम मूर्ति महारानी
मदालसा ने अपनी कोख में ही एक के बाद एक सात पुत्रों को लोरियां गा-गा कर इस प्रकार
की शिक्षा व संस्कार दिए कि ‘सिद्धोसि बुद्धोसि निरंजनोसि.....’ "तुम यह शरीर नहीं हो, तुम्हारी पहचान विक्रांत, सुबाहु, शत्रुमर्दन या अन्य तथाकथित नामों से नहीं है, तुम सिर्फ एक आत्मा हो, विशुद्ध-निर्मल आत्मा, जिसे इस संसार से मुक्त होना है" और वे संयम ग्रहण कर मोक्ष में गए। वैदिक साहित्य में भी महारानी
मदालसा का उल्लेख गंधर्व राजा की पुत्री और सम्राट ऋतुध्वज की पत्नी के रूप में मिलता
है, जिसने अपनी कोख में आए एक के बाद एक तीन पुत्रों
के हृदय में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होने की शिक्षा व संस्कारों का अंकन किया और वे आत्माएं
संयम मार्ग पर आरूढ होकर मोक्ष में गईं। राजा को चिन्ता हुई कि महारानी बच्चों को वैराग्य
रंग में डुबो रही हैं, तो भविष्य में इस
राज्य को एक सुयोग्य उत्तराधिकारी कहां से मिलेगा? राजा इस चिन्ता से व्यग्र होकर महारानी से विनती करता है तो
महारानी अपने अंतिम पुत्र में अपनी कोख में ही कुशल न्यायप्रिय राजनीति की शिक्षा व
संस्कारों का अंकन करती है और वह अलार्क राजा प्रजावत्सल बनकर प्रजा की सेवा करता है
तथा अंतिम अवस्था से पूर्व संयम ग्रहण कर आत्म-कल्याण करता है।
अभिमन्यु ने चक्रव्यूह भेदन माँ के गर्भ में ही सीखा था.
ऐसे अनेक उदाहरण इतिहास में भरे पड़े है.
बालक विनयशील, विवेकवान व आज्ञाकारी बने, उस पर लेशमात्र भी क्रोध और अहंकार की छाया न पडे, झूठ और चोरी से वह
हमेशा कोसों दूर रहे, ताकि उसका जीवन सफल और सार्थक बने; यह जिम्मेदारी मूलतः माता-पिता की ही है, क्योंकि गर्भ से
लेकर युवा होने तक वे ही उसे संस्कारित कर सकते हैं और अपने स्वयं के आचरण का ध्यान
रखते हुए उसे भी सन्मार्ग में टिकाए रख सकते हैं। गर्भ से लेकर आठ वर्ष तक की आयु इसके
लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।
मनोविज्ञान भी इस बात की तस्दीक करता है.
इस प्रकार संस्कारित बच्चा आठ वर्ष या उससे आगे की किसी भी
आयु में दीक्षा लेता है और उसे आगे भी शिक्षा व संस्कारों का ऐसा ही वातावरण मिलता
है कि वह अपने जीवन को उन्नत बनासके और मानवीय गरिमा व गौरव के अनुरूप जीवन जी सके
तो आज की विध्वंसकारी वैश्विक परिस्थतियों में तो यह और भी महत्वपूर्ण व सम्मानजनक
है और दुनिया के किसी भी न्यायालय को इसका समर्थन करना चाहिए. ऐसे हजारों उदाहरण
हैं कि बचपन में संयम ग्रहण करने वाले बहुत ही महान आचार्य बने हैं और उन्होंने
मानवता की सर्वोत्कृष्ट सेवा की है.
गुजरात उच्च न्यायालय में मामले की उचित ढंग से पैरवी नहीं
हुई है और समग्र जैन समाज को एकजुट होकर इस परिस्थिति का मुकाबला करना चाहिए.
न्यायालय ने क्या फैसला दिया है, किस संदर्भ में दिया है, जिस संदर्भ
का उल्लेख एक महान आचार्य के हवाले से किया गया है, उन आचार्य की वास्तव में कोई भूमिका है या नहीं, यह सब एक सोचे-समझे और प्रायोजित षडयंत्र का परिणाम तो नहीं है; ये सब यक्ष प्रश्न हैं, जिनकी गवेषणा जरूरी है। यह बहुत ही ज्वलंत मुद्दा है।
गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा बालदीक्षा के विरूद्ध दिए गए फैसले पर मनोचिकित्सक
की टिप्पणी भी है। मनोचिकित्सक द्वारा दी गई दलीलें एकदम बकवास है और हम इसका खण्डन
कर सकते हैं, इस संबंध में हम कई मनोवैज्ञानिक
पहलु आज के संदर्भ में प्रस्तुत कर सकते हैं। जिन हारमोनियल परिवर्तनों की बात वे मनोचिकित्सक
कर रहे हैं, वे यह भूल रहे हैं कि विचारों
और वातावरण का हारमोनियल परिवर्तनों पर, स्नायुतंत्र पर और ऊर्जा-शक्ति व स्फुरणा पर गहरा असर होता है और इसके माहौल के
हिसाब से सकारात्मक या नकारात्मक प्रभाव होते हैं। बच्चा धार्मिक वातावरण में रहेगा
तो उसका विकास उसी दिशा में अधिक होगा। इसके हजारों उदाहरण दिए जा सकते हैं. इसके अलावा
भी और बहुत सी बातें हैं। इस प्रकार बालदीक्षा के समर्थन में भी प्रबल दावे हो सकते
हैं, किन्तु लगता है मामला कुछ और है
या बालदीक्षा के समर्थन में व गजट मामले में पैरवी करनेवाले उचित ढंग से पैरवी नहीं
कर पाए हैं। समाज के प्रबुद्ध लोगों को इस पर गहन चिंतन करने की आज आवश्यकता है। यह
धर्म पर सीधा हमला है।
Millions of
children from poor family are being exploited in criminal environment by all
possible means. But if a child from affluent family decide to renunciate
worldly pleasure and opt for the path of truth which liberate one from
sufferings at the permanent basis. Hope Judiciary would not interfere in the
practice and teachings pronounced in jainism for welfare of we all.
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