सोमवार, 18 मई 2015

सम्पूर्ण जैन समाज के गाल पर एक करारा तमाचा


गुजरात उच्च न्यायालय के पारसी जज ने मारा है
सम्पूर्ण जैन समाज के गाल पर एक करारा तमाचा
जैन धर्म को बिना गहराई से जाने और उसकी दीक्षाओं को बिना समझे गुजरात हाई कोर्ट के एक पारसी जज ने जो फैसला दिया है, वह समाज के लिए अत्यंत लज्जास्पद, लांछन रूप और लोगों की आस्था-विश्वास और अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह को तीन करण तीन योग से धारण करनेवाले आचार्य व मुनि भगवंतों को आघात पहुंचाने वाला है।
दीक्षा देनेवाले धर्मगुरुओं और दीक्षार्थियों के माता-पिता को क्रूर बताया गया है।
ऐसे कई मिथ्या आरोपों से समूचे जैन धर्म को बदनाम व लज्जित करनेवाले इस फैसले के खिलाफ सम्प्रदायवाद से ऊपर उठकर एकजुट होने की आवश्यकता है।
बालदीक्षा क्या केवल जैनधर्म में ही होती है? बौद्धधर्म में भी होती है, जगतगुरु कहलानेवाले श्री शंकराचार्यजी के यहां भी होती है, अन्य कई मत-मतांतरों में होती है।
यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण बात है कि आज तक जितने बडे-बडे महापुरुष, बडे-बडे आचार्य व बडे-बडे शास्त्रों के लेखक हुए हैं, उनमें बालदीक्षितों की संख्या ही ज्यादा है, चाहे वे कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य हों, श्री शंकराचार्य हों, संत ज्ञानेश्वर हों, आचार्य तुलसी गणी हों, आचार्य हस्तीमलजी हों या वर्तमान गच्छाधिपति पुण्यपालसूरिजी हों, ऐसे हजारों नामों की सूची हो सकती है। यानी जो बचपन में दीक्षा लेते हैं, उनकी शिक्षा-दीक्षा, तप-तेज उच्च कोटि का होता है व उनमें पूर्व जन्म के ऐसे संस्कार और पुण्य होता है; फिर उनके नाम पर ये गालियां क्यों?
जैन समाज में जितनी दीक्षाएं होती हैं, उनमें से 0.5 प्रतिशत भी बालदीक्षाएं नहीं होती। बडे होकर दीक्षित होनेवालों में से संयम नहीं पाल सकने और वापस संसार में लौटनेवालों की अपेक्षा बालदीक्षितों के वापस लौटने की संख्या अत्यंत नगण्य है। फिर क्यों इस पर गाज गिराई गई है और इसके नाम पर व इसकी आड़ में समूचे जैन धर्म पर आक्रमण किया गया है? यह एक षडयंत्र का हिस्सा है, जिसे समाज को समझना चाहिए और जरूरी कदम उठाने चाहिए।
जज ने केन्द्र सरकार व राज्य सरकार को बालदीक्षा रोकने के लिए कानून बनाने के निर्देश दिए हैं। 13 जुलाई से पहले इस फैसले के खिलाफ दूसरा फैसला आना जरूरी है, अन्यथा बडा अनर्थ होगा।
प्रत्येक व्यक्ति को एक व्यक्तिगत पत्र, प्रत्येक संघ को एक प्रस्ताव गांव-गांव, शहर-शहर से माननीय मुख्य न्यायाधीश, सर्वोच्च न्यायालय, नई दिल्ली व राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री आदि के नाम पर लिखना चाहिए और स्थानीय स्तर पर ज्ञापन देना चाहिए तथा गुजरात उच्च न्यायालय के आदेश को तुरंत प्रभाव से खारिज कर सारे मामले की तुरंत प्रभाव से जांच करने की मांग करनी चाहिए। इसके अलावा भी फैसले के खिलाफ जो भी उचित अहिंसात्मक कदम उठाए जा सकें वे उठाए जाने चाहिए।
धर्म की सुरक्षा और इसके गौरव को अक्षुण्ण रखने के लिए सभी धर्म गुरुओं द्वारा समाज को इसकी प्रेरणा दी जानी चाहिए।
इस समय सारे मुद्दे गौण हैं, उच्च न्यायालय के आदेश का मुद्दा ही सर्वोपरि होना चाहिए।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें