रविवार, 24 मई 2015

सांसारिक रस दुर्गति का कारण



यह सांसारिक सुख चाहे जितना मिले, चाहे जितने प्रमाण में मिले, परन्तु अन्त में जीव का कल्याण इससे नहीं होता। यह सुख सदा रहने वाला नहीं। या तो यह चला जाएगा, या जीव को इसे छोडकर जाना पडेगा। साथ ही इस सुख को प्राप्त करने में, भोगने में, रक्षण करने में जो-जो हिंसादि पाप होते हैं, उनका फल इस जीव को भोगना ही पडता है। पाप का फल दुःख है, अर्थात् इस सुख के भोग में अपने आपको भूले, आत्मा को निर्मल बनाने के लिए संवर और निर्जरा का काम भूले, तो दुःखी होना निश्चित है। इस जन्म में यह भौतिक सुख और अगले जन्म में महादुःख, यह भी संभव है। इस प्रकार जीव भटका करे और सुख के लिए बिलखता रहे, इसकी अपेक्षा ऐसा करना चाहिए कि जिससे भटकना ही बंद हो जाए। जीव को अनुभव से, विचार करते-करते ऐसा महसूस होना चाहिए, ‘इस सुख के पीछे हम चाहे जितने पडे रहें, इसमें जीव का स्थाई लाभ होने वाला नहीं है। इतना ही नहीं, इस सुख का रस भी जीव को नरक में गिरा सकता है और निगोद में भी पटक सकता है। इस सुख के रस बिना ऐसा पाप नहीं बंधता जो जीव को नरक और निगोद में पटक सके। इसलिए जो कोई जीव नरक में या निगोद में गए, जाते हैं और जाएंगे, उसमें प्रधान कारण सांसारिक सुख का रस ही है। अब तक इस जीव का जो कुछ बुरा हुआ, वह संसार सुख के रस के कारण ही हुआ। सदा के लिए सम्पूर्ण सुख प्राप्ति हेतु तो जीव को धर्म की ओर ही उन्मुख होना चाहिए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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