शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

जीवन का लक्ष्य तो सर्वविरति ही होना चाहिए


जीवन का लक्ष्य तो सर्वविरति ही होना चाहिए

आत्म-स्वभाव की प्राप्ति के लिए पाप मात्र से निवृत्त होकर संयम और तप का विशिष्ट सेवन अत्यावश्यक है, लेकिन गृहस्थ जीवन में ऐसा उत्तम जीवन जीना संभव नहीं है। इसलिए सर्वश्रेष्ठ उपाय तो संसार का त्याग कर दीक्षा स्वीकार करना तथा दीक्षा स्वीकार करने के बाद अनंतज्ञानी वीतराग परमात्मा की आज्ञानुसार निर्ग्रन्थ आचार में अपनी शक्ति का उपयोग करना है। जो आत्माएं इसी तरह संसार का सम्पूर्ण त्याग कर साधु-धर्म के पालन में असमर्थ हों, वे आत्माएं भी देशविरति (आंशिक विरक्ति) हिंसा आदि पापों का त्याग कर सकती हैं। गृहस्थ के लिए दूसरा कोई धर्म नहीं है। धर्म तो जो है, वही है; परन्तु गृहस्थ सर्वांग रूप से धर्म का पालन नहीं कर सकते हैं, अतः उन्हें देशविरति (आंशिक) पालन के लिए कहा गया है और उसी को गृहस्थ धर्म कहा है।

गृहस्थ धर्म का पालन करने वाले का भी ध्येय तो उच्चकोटि के धर्म का पालन करने का ही होना चाहिए। जितने अंश में धर्म का पालन न हो, उतने अंश में अपनी कमजोरी समझकर पश्चाताप करते हुए अपने सत्व गुण को विकसित करने का प्रयत्न लक्ष्य-प्राप्ति तक लगातार करते रहना चाहिए। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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