आज स्वार्थवृत्ति इतनी अधिक
बढ गई है कि अपने सामान्य स्वार्थ के लिए भी व्यक्ति अन्य जीवों के प्राण ले लेता
है। सांप ने नहीं काटा हो तब भी ‘यह विषैला प्राणी है, कदाचित् काट लेगा’,
इस भय से उसे मार दिया
जाता है। आज स्वार्थी मनुष्य जितना हिंसक व क्रूर बन गया है, उतने हिंसक व क्रूर तो हिंसक व विषैले प्राणी भी नहीं हैं।
सांप विषैला होने पर भी उस सांप से मदारी अपनी आजीविका चलाता है। सिंह, बाघ, चित्ता आदि हिंसक होने पर भी
सर्कस वाले उनसे अपनी कमाई करते हैं। इस दृष्टि से वे विषैले और हिंसक प्राणी भी
मनुष्य की कमाई कराने में सहायक बनते हैं,
जबकि अति स्वार्थी
मनुष्य किसी का सहायक नहीं बनता, बल्कि वह तो अनेकों का बुरा
ही करता है।
‘सांप काट लेगा।’
इस भय से सांप को
मारने वाला क्या कम विषैला है? सांप के तो दांत में जहर होता
है, जबकि स्वार्थी मनुष्य के हृदय में जहर होता है।
ज्ञानियों द्वारा निर्दिष्ट हिताहित का विवेक जिसमें नहीं है, ऐसा व्यक्ति अपना विरोध करने वालों को क्या-क्या नुकसान
नहीं पहुंचाता है? उसके हृदय में तो इतना भयंकर
जहर होता है कि वह अपने स्वार्थ के लिए सामने वाले का खून भी कर सकता है। -आचार्य श्री
विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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