सोमवार, 4 फ़रवरी 2013

आधि-व्याधि-उपाधि में समाधि


मानव-जीवन के सिवाय अन्य किसी भी जीवन में मोक्ष-साधक, सर्व त्यागमय धर्म की साधना नहीं हो सकती। इस कारण इस जीवन में अनंत ज्ञानियों की आज्ञानुसार सर्व त्याग की साधना हो जाए, यही एक कर्तव्य है, इसमें कोई शंका नहीं है। फिर भी यह मार्ग सभी के लिए सरल नहीं है, अतः उस आदर्श को आँखों के सामने रखकर इस प्रकार जीवन जीना चाहिए कि कदाचित् इस जीवन में उस मार्ग की साधना शक्य न बने तो भी भवांतर में तो अवश्य सहज बन जाए। आधि, व्याधि और उपाधि से भरे इस संसार में भी समाधिमय जीवन जीने की कला श्री वीतराग परमात्मा का शासन सिखाता है। श्री जिनशासन के बारह प्रकार के तप से निर्मल जीवन जीना सीख ले तो विषय-कषाय रूप यह संसार भी आत्मा को संतप्त करने में समर्थ नहीं बन सकता है। संसार में भी संतोष, शान्ति और समाधि से कैसे जीया जाए, यह कला जैन धर्म सिखाता है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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