‘पाप बिना दुःख नहीं और धर्म
बिना सुख नहीं’, ऐसा बोलने वालों की दुनिया
में कमी नहीं है, परन्तु इस बात को स्वीकार कर
जीवन में आचरण में लाने वाले बहुत थोडे ही लोग हैं। उसमें भी धर्म और पाप के
वास्तविक स्वरूप को समझने वाले बहुत कम हैं। दुनिया में अधिकांश लोग पाप से डरते
नहीं हैं, पाप करने से पीछे नहीं हटते
हैं, इतना होने पर भी वे अपने आपको
पापी नहीं मानते हैं। हित-बुद्धि से कोई उन्हें पाप से बचने के लिए कहे तो भी सहन
नहीं होता, ऐसी स्थिति में दुःख कहां से
जाए और सुख कहां से आए?
जो लोग समझते हैं कि पौद्गलिक वासनाएं आत्महित के लिए विषतुल्य हैं, उन्हें आत्म-स्वभाव को प्रकट करने में सहायक
प्रवृत्तियों में रस पैदा करना चाहिए और आत्महित में बाधक प्रवृत्तियों में से रस
उड जाना चाहिए। इस प्रकार करने पर ही दुःख-मुक्ति और सुख-प्राप्ति हो सकती है।
इसके बिना अनंतकाल से दुःख का अनुभव करते आए हैं और भविष्य में भी दुःख निश्चित है।
-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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