नाशक-छल सत्पुरुषों का धर्म नहीं है। सत्पुरुष प्रपंचियों के नाशक प्रपंच को
समझते जरूर हैं,
किन्तु उनके नाशक-प्रपंचों को स्वयं के जीवन में कभी आगे
नहीं करते। सत्पुरुष नाशक-प्रपंच का आदर करने वाले बनें तो सामान्य कोटि के सज्जन
आत्मा के लिए जीवित रहना दुष्कर है। जिसके आधार से जीना होता है, वही
यदि नाशक-प्रपंच करने वाला बने तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है। सत्पुरुषों की बडी
जिम्मेदारी है। उनका जीवन कठिन से कठिन जीवन होता है। सत्पुरुषों को एक-एक
प्रवृत्ति भी स्व-पर हित की साधक बनानी चाहिए। सत्पुरुषों की अकडाई भी नम्रता, सत्पुरुषों
का कोप भी क्षमा,
सत्पुरुषों की माया भी सरलता और सत्पुरुषों का लोभ भी संतोष
का घर होना चाहिए। दुर्जनों की आत्माएं स्व-पर के अहित को साधने वाले जो-जो उपाय
करती हैं, वे समस्त उपाय स्व-पर हित की साधना में योजित करने का सामर्थ्य सत्पुरुषों में
होना चाहिए। इसी कारण सत्पुरुषों में सहनशीलता के साथ ही कर्तव्य परायणता भी होनी
चाहिए। सत्पुरुषों में अज्ञानियों की तरफ से सेवित अज्ञानजन्य दोषों की सहनशीलता
अथाग होनी चाहिए। कर्तव्य-परायणता भी अजोड होनी चाहिए। सत्पुरुषों की सहनशीलता
हिम/बर्फ की तरह होनी चाहिए, जबकि कर्तव्य-परायणता अग्नि की ज्वाला के
समान होनी चाहिए। सचमुच में ऐसे महापुरुष ही इस संसार के लिए मुक्ति के दूत होते
हैं। ऐसे सत्पुरुषों के समक्ष छल करना तो जीवन भी मरण के समान है।-आचार्य श्री
विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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