पंच परमेष्ठियों में आचार्य तीसरे, उपाध्याय चौथे व साधु पांचवें
पद पर आराध्य हैं। आचार्य आदि आराधक भी हैं और आराध्य भी हैं। उस-उस पद की उनमें
जितनी-जितनी योग्यता हो,
उतने-उतने अंश में वे आराध्य हैं। आचार्य आदि की आराधना का
आधार भी वे स्वयं जिस पद पर स्थित हैं, उस पद के वे कितने वफादार हैं, उस
पर निर्भर है। ये पद वेश अथवा ग्राह्य आडम्बर के ही कारण नहीं हैं, अपितु
मुख्यतः गुणों के आधार पर हैं। श्री आचार्य, उपाध्याय और साधु पद पर गिने
जाने वाली आत्माओं की जोखिम व जिम्मेदारी बहुत अधिक बढ जाती है। वे तो वर्तमान में
शासन के आधारभूत गिने जाते हैं। इनको अच्छी तरह ध्यान में रखना चाहिए कि हम
अपने-अपने पद को अधिक उज्ज्वल न कर सकते हों तो भी कम से कम उसे लांछित तो नहीं ही
होने दें। आचार्य,
उपाध्याय और साधु अपने पद से विपरीत व्यवहार करें, तो
वे देखने में आचार्य,
उपाध्याय अथवा साधु होने पर भी शासन को कुरेद कर खाने वाले
कीडों का ही कार्य करते हैं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें