शुक्रवार, 27 मार्च 2015

धन्य है वह कवि और धन्य है उसकी पुत्री



कवि धनपाल राजा भोज का कवि तथा पंडित था। एक बार राजसभा में उसकी अनुपस्थिति देखकर राजा ने इसका कारण पूछा तो बताया गया कि "वह एक ग्रंथ लिख रहा है"। बात भी सही थी कि वह "तिलकमंजरी" नामक ग्रंथ लिख रहा था। उसमें भगवान श्री ऋषभदेव स्वामी का जीवन था। देवस्थान पर वे थे, राजा के स्थान पर भरत थे और नगरी के वर्णन में विनिता नगरी थी। राजा ने वह ग्रंथ पूरा होने पर सुनने की इच्छा जताई। उद्यान में बैठकर धनपाल ने राजा को वह पूरा ग्रंथ सुनाया।

भोजराजा की मांग और धनपाल का जवाब :

ग्रंथ सुनकर भोज खुश हो गया। उसने कवि को कहा कि "कविराज! ग्रंथ तो बहुत ही अच्छा है, किन्तु इसमें तुझे तीन बदलाव करने होंगे। ऋषभदेव के स्थान पर मेरे इष्टदेव का नाम लिख, भरत के स्थान पर "भोज" कर और विनिता के स्थान पर "धारा नगरी" कर दे।" धनपाल राजा भोज के अनुदान से जीवन निर्वाह करता था, तब भी उसने तुरंत कह दिया कि "राजन्! आपकी बुद्धि ठिकाने नहीं है। यदि इस प्रकार बदलाव करूंगा तो मैं मृषाभाषी कहलाऊंगा और पूरा ग्रंथ ही बेकार हो जाएगा। कहां ऐरावत हाथी और कहां प्रजापति का हाथी?" धनपाल कितनी नीडरता पूर्वक कहता है? प्रजापति का हाथी इसलिए राजा का भी हाथी हुआ और कुंभार का गधा भी हुआ। यहां उसने राजा को गुस्सा होकर कहा है, इसलिए दूसरे अर्थ में ही समझना होगा। केवल हाथी कहता तो हाथी ही समझा जाता, लेकिन प्रजापति का हाथी कहने पर तो गधा ही समझना पडेगा। जब सामनेवाले को सीधा "मूर्ख" नहीं कहना हो तो संस्कृत साक्षरों ने "देवानांप्रिय" शब्द रखा है। ये दो शब्द अलग रखें तो तो "देवों को प्रिय" यह अर्थ होता है, किन्तु अलग न करें तो "मूर्ख" ऐसा अर्थ होता है। सामनेवाला तो समझे कि मुझे अच्छा कहा है, जबकि कहनेवाले ने उसे "मूर्ख" कहा।

राजा का कोप और ग्रंथ का नाश :

आगे बढकर धनपाल कहता है कि "राजन् ! कहां ऐरावत और कहां गधा ! कहां चिंतामणि रत्न और कहां कांच का टुकडा ! कहां सुवर्ण और कहां कथीर! कहां मेरे इष्ट ऋषभदेव और कहां आपके जगत संहारक देव ! कहां महाराजा भरत और कहां भोज ! कहां देवताई नगरी जैसी विनिता और कहां झूंपडेवाली आपकी धारा !" यह सुनकर राजा को भारी क्रोध चढा और सामने तप सुलग रहा था, उसमें पुस्तक को डाल दिया। देखते ही देखते ग्रंथ भस्मीभूत हो गया। "विनाशकाले विपरीत बुद्धि" कहकर धनपाल वहां से चला गया। उदास हृदय से घर आया। वर्षों की मेहनत पर पानी फिर गया। वह अत्यंत दुःखी हो गया। भोजन भाता नहीं। अब उसके भोजन गले उतरेगा? नहीं ही उतरता है।

ग्रंथ की पुनर्रचना :

पिता को गमगीन देखकर पुत्री तिलकमंजरी ने इसका कारण पूछा। धनपाल ने पुत्री को सारी हकीकत कह सुनाई, तब पुत्री ने कहा कि "पिताजी! चिंता मत करिए। आप लिख रहे थे तब मैं उत्सुकतावश रोज इस ग्रंथ को पढती थी, इस कारण से मुझे यह पूरा ग्रंथ मुँह पर शब्दशः याद है। आपको यह पूरा ग्रंथ मैं दुबारा लिखवा देती हूं।" पुत्री की यह बात सुनकर पिता खुश हो गए। पूरा ग्रंथ दुबारा से लिखा और पुत्री के नाम से ही इस ग्रंथ का नाम "तिलकमंजरी" रखा। इसका नाम है जैनत्व की खुमारी।-सूरिरामचन्द्र

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