धर्मार्थी
सावधान रहे
शासन बांझ नहीं है। आज जैन समाज की चाहे जैसी दुर्दशा हुई हो तो भी कोई सुसाधु, सुसाध्वी, सुश्रावक
और सुश्राविका नहीं है,
ऐसा कोई भी श्रद्धालु कह नहीं सकता। विषम काल में आराधना
करने की इच्छा रखने वालों को विशेष सावधान रहना चाहिए। बाजार में जब उथल-पुथल चलती
हो, तब व्यापारी कितना सावधान रहता है? उस वक्त वह खाना-पीना भी भूल
जाता है और टेलीफोन को सिर पर रखकर नहीं जैसा ऊंगता है। खाते-पीते और चलते-फिरते
भी उसे बाजार की चिन्ता रहती है। उसी प्रकार यहां भी उथल-पुथल चलती हो तब
धर्मार्थी को विशेष चतुर होना चाहिए। बाजार में जैसे लक्ष्मी का अर्थीपन है, वैसा
ही अर्थीपन धर्म में भी आ जाए तो सच्चे और खोटे का, अच्छे और खराब का
परीक्षण न हो सके,
ऐसा कुछ नहीं है। किन्तु, खोटे को छोडकर सच्चे
की शरण में जाने की भावना हो तो ही ऐसा संभव होता है। कितनी ही बार निर्दोषों को
भी दोषी मानने की भूल हो जाती है। ऐसी बातों से पवित्र, त्यागी
और पूज्य जैन साधु-संस्था के लिए इतरों के हृदय में भी दुर्भावना पैदा हो जाती है
तथा बाल-जीव धर्म से वंचित रह जाते हैं। इसलिए कदाचित् ऐसा प्रतीत होता हो तो उसको
सुधार लेने का शक्य प्रयत्न करना चाहिए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
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