कर्मलघुता को नहीं पाए हुए आत्माओं को अनन्त उपकारियों द्वारा कथित कल्याणकारी
बातें भी न रुचें तो यह स्वाभाविक है। इसलिए भगवान ने गृहस्थ धर्म का भी उपदेश
दिया है, किन्तु गृहस्थाश्रम में रहने का तो उपदेश कतई नहीं दिया है। गृहस्थावस्था का
त्याग करके संयमी बनना,
यह जिन आत्माओं के लिए शक्य नहीं है, वे
आत्माएं भी आत्मकल्याण की साधना से सर्वथा वंचित न रह जाएं और वे भी क्रमशः
सुविशुद्ध संयममय जीवन वाले बन सकें, इसीलिए ही भगवान ने गृहस्थ
धर्म का उपदेश दिया है। उपकारकगण स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि ‘देशविरति
धर्म का भी सच्चा आराधक वही है, जो सर्वविरति धर्म की लालसा वाला हो।’
गृहस्थावस्था को कल्याण का कारण मानने वाले अथवा गृहस्थावस्था में रचेपचे एक
भी आत्मा को किसी काल में केवलज्ञान न हुआ है और न होने वाला है। गृहस्थावस्था में
रहते हुए कल्याण की साधना वाले तो वे ही बन सके हैं और बन सकते हैं कि जो गृहस्थावास को हेय मानें और श्री जिनाज्ञानुसार संयमशील बनने में ही
कल्याण मानने वाले बनें,
असंयम का पश्चाताप करें और संयम का अनुसरण करें।
निर्मल
श्रद्धा ही सुखकारी
वर्तमान में सुख का अनुभव करने के साथ ही, भावीकाल को भी सुखमय बनाने का
एकमात्र यही मार्ग है कि अनन्तोपकारी, अनंतज्ञानी श्री
जिनेश्वरदेवों द्वारा प्रतिपादित यथावस्थित मुक्तिमार्ग के प्रति निर्मल श्रद्धा
धारण करो और इस मार्ग की आराधना में ही दत्तचित्त बनो। जो निर्दोष और उसके उपरांत
अनुपम सुख का अनुभव छः खण्ड के अधिपति चक्रवर्ती भी नहीं कर सकते और देवों के
अधिपति इन्द्र भी नहीं कर सकते हैं, उस सुख का अनुभव सच्चे
निर्ग्रन्थ कर सकते हैं। साधु साधुपन को प्राप्त हो तो जितने अंश में साधुपन की
सुन्दरता होगी,
उतने ही अंश में वह सुख का अनुभव कर सकता है। आज्ञाविहित मार्ग
में समभाव से मस्त रहने वाले को बाह्य कारण दुःख उत्पन्न नहीं कर सकते। चक्रवर्ती
या इन्द्र आदि को ऐसा समाधिसुख, इन्द्रत्व या चक्रवर्तीत्व से भी संभव
नहीं है। आहार मिले,
न मिले, मान मिले या अपमान, स्वागत
हो या तिरस्कार,
दोनों स्थितियों में पुण्य-पाप के उदय को समझने वाला समभाव
में ही रहता है,
यह सुख कोई सामान्य कोटि का नहीं है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
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