शुक्रवार, 27 मार्च 2015

जो ‘ठकुर सुहाती’ करे वह साधु नहीं



यह रजोहरण (ओघा) तो विश्वास का धाम है। इसे देखकर सब मस्तक नमाने आते हैं। यह जिसके हाथ में होता है, उसे हर घर में जगह मिल जाती है। ओघा ऐसा विश्वास पैदा करता है कि इसे रखने वाला रूप, रस, गंध, स्पर्श में से एक का भी चोर नहीं होता। इस विश्वास का भंग हो, ऐसा जो करता है, वह कितने पाप बांधता है? मुनि तो स्वयं तिरता है और दूसरे को तारता है, परन्तु जो इस वेश के प्रति वफादार नहीं रहता, वह स्वयं मरता है और दूसरे को मारता है। यह जमानावाद तात्कालिक स्वाद है, पेट में जाकर गडबड करने वाला है, जहर फैलाने वाला है। जो आपको रुचिकर बातें कहें, उनका भक्त कभी मत बनना। त्यागी होकर भी जो आपको मान दे, उससे सावधान रहना। समझना चाहिए कि उसके त्याग में कहीं पोल है। साधु ठकुर सुहातीनहीं कहता, वह तो शास्त्रानुसारी खरी-खरी कहता है। वह न तो स्वयं चापलूसी करता है और न ही अपनी चापलूसी करने वालों को गोद में बिठाता है। जिस शास्त्र के आधार पर कुटुम्ब-कबीला छोडा, घरबार छोडा, मां-बाप छोडे, उस शास्त्र की बात आए वहां शास्त्र की बात बीच में न लावें’, ऐसा बोला जा सकता है क्या? ऐसा बोलने वाले वेश पहिनने के और साधु कहलाने के अधिकारी नहीं हैं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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